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________________ १५६ उत्तराध्ययनसूत्र [१९] उत्तमधर्म-विषयक श्रवण (श्रुति) प्राप्त होने पर भी उस पर श्रद्धा होना और भी दुर्लभ है, (क्योंकि) बहुत-से लोग मिथ्यात्व के सेवन करने वाले होते हैं। अत: गौतम! समयमात्र का भी प्रमाद मत करो। २०. धम्म पि हु सद्दहन्तया दुल्लहया काएण फासया। इह कामगुणेहि मुच्छिया समयं गोयम! मा पमायए॥ [२०] (उत्तम) धर्म पर श्रद्धा होने पर भी उसका काया से स्पर्श (आचरण) करने वाले अति दुर्लभ हैं, क्योंकि इस जगत् में बहुत-से धर्मश्रद्धालु जन शब्दादि कामभोगों में मूछित (आसक्त) होते हैं। अतः गौतम। समयमात्र का भी प्रमाद मत करो। . विवेचन–मनुष्यजन्मप्राप्ति के बाद भी आर्यत्व, पञ्चेन्द्रियों की पूर्णता, उत्तम-धर्म-श्रवण, श्रद्धा और तदनुरूप धर्म का आचरण उत्तरोत्तर दुर्लभ है। दुर्लभता की इन घाटियों को पार कर लेने पर भी अर्थात् उक्त सभी दुर्लभ बातों का संयोग मिलने पर भी अब क्षणभर का भी प्रमाद करना जरा भी हितावह नहीं है। आरियत्तणं- आर्यत्वं : दो अर्थ-(१) बृहवृत्ति के अनुसार- मगध आदि आर्य देशों में आर्यकुल में उत्पत्तिरूप आर्यत्व, (२) जो हेय आचार-विचार से दूर हों, वे आर्य हैं ,अथवा जो गुणों अथवा गुणवानों के द्वारा माने जाते हैं, वे आर्य हैं। आर्य के फिर क्षेत्र, जाति, कुल, कर्म, शिल्प, भाषा, चारित्र और दर्शन के भेद से ८ भेद हैं; अनेक उपभेद हैं। यहाँ क्षेत्रार्य विवक्षित है। जिस देश में धर्म, अधर्म, भक्ष्य-अभक्ष्य, गम्य-अगम्य, जीव-अजीव आदि का विचार होता है, वह आर्यदेश है। दसुआ—दस्यवः- दस्यु शब्द चोर, आतंकवादी, लुटेरे डाकू आदि अर्थों में प्रसिद्ध है। देश की सीमा पर रहने वाले भी दस्यु कहलाते हैं। मिलक्खुया-म्लेच्छा:- पर्वत आदि की खोहों या बीहड़ों में रहने वाले एवं जिनकी भाषा को आर्य भलीभांति न समझ सकें, वे म्लेच्छ हैं। शक, यवन, शबर, पुलिंद, नाहल, नेष्ट, करट, भट, माल, भिल्ल, किरात आदि सब म्लेच्छजातीय कहलाते हैं। ये सब धर्म-अधर्म, गम्य-अगम्य, भक्ष्य-अभक्ष्य आदि सभी आर्य व्यवहारों से रहित, संस्कारहीन होते हैं। कुतित्थिनिसेवए- कुतीर्थिक का लक्षण बृहद्वृत्ति के अनुसार यह है कि जो सत्कार, यश आदि पाने के अभिलाषी हों तथा इसके लिए जो प्राणियों को प्रिय मनोज्ञ विषयादिसेवन का ही उपदेश देते हों, ताकि लोग अधिक से अधिक आकर्षित हों, उन्हें कुछ त्याग, तप, व्रत, नियम, प्रत्याख्यान आदि करना न पड़े। यही कारण है कि कुतीर्थी जनों के उपासक को शुद्ध एवं उत्तम धर्मश्रवण का अवसर नहीं मिलता। १. उत्तरा० मूल अ० १०, गा० १६ से २० २. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र ३३७ (ख) राजवार्तिक ३/३६/१/२०० (ग) तत्त्वार्थ., (पं.सुखलालजी) अ.३/१५ , पृ. ९३ ३. (क) तत्त्वार्थ. (पं. सुखलालजी), अ० ३/१५, पृ० ९३ (ख) बृहद्वृत्ति , पत्र ३३७ (ग) 'पुलिंदा नाहला, नेष्टाः शबराः करटा भटा: माला, भिल्ला किराताश्च सर्वेऽपि म्लेच्छजातयः। - उत्त० प्रियदर्शिनी, भा० २, पृ० ४८७ ४. कुर्तीथिनो हि यश:सत्काराद्येषिणो यदेव प्राणिप्रियं विषयादि तदेवोपदिशन्ति..... इति सुकरैव तेषां सेवा, तत्सेविनां च कुत उत्तमधर्मश्रुतिः १'- बृहद्वृत्ति, पत्र ३३७
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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