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उत्तराध्ययनसूत्र
परित्याग करे। कामभोगों के सभी प्रकारों में (दोष) देखता हुआ आत्मरक्षक ( त्राता) मुनि उनमें लिप्त न
हो ।
५.
भोगामिसदोसविसणे हियनिस्सेयसबुद्धिवोच्चत्थे । बाले य मन्दिए मूढे बज्झई मच्छिया व खेलंमि ॥
[५] आत्मा को दूषित करने वाले (शब्दादि - मनोज्ञ विषय - ) भोग रूप आमिष में निमग्न, हित और निःश्रेयस में विपर्यस्त बुद्धि वाला, बाल (अज्ञ), मन्द और मूढ़ प्राणी कर्मों से उसी तरह बद्ध हो जाता है, जैसे श्लेष्म (कफ) में मक्खी ।
६.
दुपरिच्चया इमे कामा नो सुजहा अधीरपुरिसेहिं । अह सन्ति सुव्वया साहू जे तरन्ति अतरं वणिया व ॥
[६] ये काम - भोग दुस्त्याज्य हैं, अधीर पुरुषों के द्वारा ये आसानी से नहीं छोड़े जाते । किन्तु जो निष्कलंक व्रत वाले साधु हैं, वे दुस्तर कामभोगों को उसी प्रकार तैर जाते हैं, जैसे वणिक्जन (दुस्तर) समुद्र को (नौका आदि द्वारा तैर जाते हैं ।)
विवेचन — पुव्वसंजोगं : दो व्याख्या- (१) पूर्वसंयोग — संसार पहले होता है, मोक्ष पीछे; असंयम पहले होता है, संयम बाद में; ज्ञातिजन, धन आदि पहले होते हैं, उनका त्याग तत्पश्चात् किया जाता है; इन दृष्टियों से चूर्णि में पूर्वसंयोग का अर्थ – संसारसम्बन्ध, असंयम का सम्बन्ध और ज्ञाति आदि का सम्बन्ध' किया गया है। (२) बृहद्वृत्ति एवं सुखबोधा में पूर्वसंयोग का अर्थ - पूर्व-परिचित — माता-पिता आदि का तथा उपलक्षण से स्वजन-धन आदि का संयोग सम्बन्ध' किया है।
दोसपओसेहिं : दो व्याख्या - (१) दोष का अर्थ है— इहलोक में मानसिक संताप आदि और प्रदोष का अर्थ है- परलोक में नरकगति आदि; (२) दोष पदों से — अपराधस्थानों से । आशय है कि आसक्तिमुक्त साधु अतिचार रूप — दोषस्थानों से मुक्त जाता है।
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सिं विमोक्खणट्ठा : तात्पर्य - पूर्वभव में कपिल ने उन सभी चोरों के साथ संयम पालन किया था, उनके साथ ऐसी वचनबद्धता थी कि समय आने पर हमें प्रतिबोध देना । अतः केवली कपिल मुनिवर उनको कर्मों से विमुक्त करने (उनके मोक्ष) के लिए प्रवचन करते हैं । ३
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४.
कलहं : दो अर्थ — (१) कलह — क्रोध, अथवा (२) कलह-भण्डन, अर्थात् — वाक्कलह, गाली देना और क्रोध करना । क्रोध कलह का कारण है इसलिए क्रोध को कलह कहा गया । पाश्चात्य विद्वानों ने कलह का अर्थ - झगड़ा, गालीगलौज, झूठ या धोखा, अथवा घृणा किया है।
(ग) सुखबोधा, पत्र १२६
(क) उत्तराध्ययनचूर्णि, पृ० १७१
(क) सुखबोधा, पत्र १२६
(क) उत्तराध्ययनचूर्णि, पृ० १७१
(ख) बृहद्वृत्ति, पत्र २९० (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र २९० (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र २९०
(क) 'कलहहेतुत्वात् कलहः क्रोधस्तम् ।'
- बृहद्वृत्ति, पत्र २९१, सुखबोधा, पत्र १२६
(ख) 'कलाभ्यो हीयते येन स कलह: - भण्डनम् इत्यर्थः ।' - उत्तरा० चूर्णि, पृ० १७१ (ग) Sacred Books of the East, Vol. XLV Uttaradhyayana, P. 33 (डॉ. हर्मन जेकोबी) (घ) Sanskrit English Dictionary, P. 261