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________________ षष्ठ अध्ययन क्षुल्लक-निर्ग्रन्थीय अध्ययन-सार * प्रस्तुत छठे अध्ययन का नाम 'क्षुल्लक-निर्ग्रन्थीय' है । क्षुल्लक अर्थात् साधु के निर्ग्रन्थत्व का प्रतिपादन जिस अध्ययन में हो, वह क्षुल्लक-निर्ग्रन्थीय अध्ययन है। नियुक्ति के अनुसार इस अध्ययन का दूसरा नाम 'क्षुल्लकनिर्ग्रन्थसूत्र' भी है। * 'निर्ग्रन्थ' शब्द जैन आगमों में यत्र-तत्र बहुत प्रयुक्त हुआ है। यह जैनधर्म का प्राचीन और प्रचलित शब्द है। 'तपागच्छ पट्टावली' के अनुसार सुधर्मास्वामी से लेकर आठ आचार्यों तक जैनधर्म 'निर्ग्रन्थधर्म' के नाम से प्रचलित था । भगवान् महावीर को भी जैन और बौद्ध साहित्य में 'निर्ग्रन्थ ज्ञातपुत्र' कहा गया है । २ * स्थूल और सूक्ष्म अथवा बाह्य और आभ्यन्तर दोनों प्रकार के ग्रन्थों (परिग्रहवृत्ति रूप गांठों) का परित्याग करके क्षुल्लक अर्थात् साधु निर्ग्रन्थ होता है । स्थूलग्रन्थ हैं— आवश्यकता से अतिरिक्त वस्तुओं को जोड़कर या संग्रह करके रखना अथवा उन पदार्थों को बिना दिये लेना, अथवा स्वयं उन पदार्थों को तैयार करना या कराना। सूक्ष्मग्रन्थ हैं— अविद्या ( तत्त्वज्ञान का अभाव ), भ्रान्त मान्यताएँ, सांसारिक सम्बन्धों के प्रति आसक्ति, मोह, माया, कषाय, रागयुक्त परिचय (सम्पर्क), भोग्य पदार्थों के प्रति ममता - मूर्च्छा, स्पृहा, फलाकांक्षा, मिथ्यादृष्टि (ज्ञानवाद, वाणीवीरता, भाषावाद, शास्त्ररटन या क्रियारहित विद्या आदि भ्रान्त मान्यताएँ), शरीरासक्ति (विविध प्रमाद, विषयवासना आदि) । 'निर्ग्रन्थता' के लिए बाह्य और आभ्यन्तर दोनों प्रकार की ग्रन्थियों का त्याग करना आवश्यक है 1 * प्रस्तुत अध्ययन में यह बताया गया है कि निर्ग्रन्थत्व अंगीकार करने पर भी, निर्ग्रन्थ-योग्य महाव्रतों एवं यावज्जीवन सामायिक की प्रतिज्ञा ग्रहण कर लेने पर भी किस-किस रूप में, कहाँ-कहाँ से, किस प्रकार से ये ग्रन्थियाँ — गांठें पुनः उभर सकती हैं और इनसे बचना साधु के लिए क्यों आवश्यक है ? इन ग्रन्थियों से किस-किस प्रकार से निर्ग्रन्थ को बचना चाहिए ? न बचने पर निर्ग्रन्थ की क्या दशा होती है? इन ग्रन्थों के कुचक्र में पड़ने पर निर्ग्रन्थनामधारी व्यक्ति केवल वेष से, कोरे शास्त्रीय शाब्दिक ज्ञान से, वागाडम्बर से, भाषाज्ञान से या विविध विद्याओं के अध्ययन से अपने आपको १. (क) । 'अत्राध्ययने क्षुल्लकस्य साधोनिर्ग्रन्थिन्दमुक्तम् ।'—उत्तराध्ययन, अ. ६ टीका; अ. रा. कोष, भा. ३ / ७५२ (ख) सावज्जगंथमुक्का अब्धिंतरबाहिरेण गंथेण । एसा खलु निज्जुत्ती, खुड्डागनियंठसुत्तस्स ॥ - उ.नि. गा. २४३ २. (क) 'श्री सुधर्मास्वामिनोऽष्टौ सूरीन् यावत् निग्रन्थाः । ' (ख) 'निग्गंथो नायपुत्रो ' — जैन आगम -तपागच्छ पट्टावलि (पं. कल्याणविजय संपादित) भा. १, पृ. २५३ (ग)' निग्गथोनाटपुत्तो' – विसुद्धिमग्गो, विनयपिटक
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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