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पंचम अध्ययन : अकाममरणीय
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दिखाई, परन्तु किसी ने कुछ न दिया। अतः उसने वैभारगिरि पर चढ़ कर रोषवश नागरिकों पर शिला गिरा कर उन्हें समाप्त करने का विचार किया। दुर्भाग्य से शिला गिरते समय वह स्वयं शिला के नीचे दब गया। वहीं मर कर सातवीं नरक में गया। इसलिए दुःशील को केवल भिक्षाजीविता नरक से नहीं बचा सकती।
अगारि—सामाइयंगाई : तीन व्याख्याएँ- यहाँ सामायिक शब्द का अर्थ किया गया है—सम्यग्यदर्शनज्ञान-चारित्र और समय ही सामायिक है। उसके दो प्रकार हैं-अगारी-सामायिक और अनगार-सामायिक। (१) चूर्णिकार के अनुसार -श्रावक के बारहव्रत अगारिसामायिक के बारह अंग हैं, (२) शान्त्याचार्य के अनुसार—निःशंकता, स्वाध्यायकाल में स्वाध्याय और अणुव्रतादि, ये अगारिसामायिक के अंग हैं, (३) विशेषावश्यकभाष्य के अनुसार —'सम्यक्त्वसामायिक, श्रुतसामायिक, देशव्रतसामायिक और सर्वव्रत (महाव्रत) सामायिक, इन चारों में से प्रथम तीन अगारिसामायिक के अंग हैं।
पोसहंः विविधरूप और विभिन्न स्वरूप—(१) श्वेताम्बर सम्प्रदाय के अनुसार-पोषध, प्रोषध, पोषधोपवास. परिपूर्ण पोषध. (२) दिगम्बर सम्प्रदाय के अनसार-प्रोषध. (३) बौद्ध साहित्य के अनुसारउपोसथ। जैनधर्मानसार पोषध श्रावक के बारह व्रतों में ग्यारहवाँ व्रत है. जिसे परिपर्ण पोषध कहा जाता है। श्रावक के लिए महीने में ६ पर्व तिथियों में ६ पोषध करने का विधान है—द्वितीया, पंचमी, अष्टमी, एकादशी, चतुर्दशी (पूर्णिमा अथवा अमावस्या)। प्रस्तुत गाथा में कृष्ण और शुक्लपक्ष की अन्तिम तिथि जिसे पक्खी कहते हैं, महीने में ऐसी दो पाक्षिक तिथियों का पोषध न छोड़ने का निर्देश किया है। परिपूर्ण पोषध में - अशनादि चारों आहारों का त्याग, मणि-मुक्ता-स्वर्ण-आभरण, माला, उबटन, मर्दन, विलेपन आदि शरीरसत्कार का त्याग, अब्रह्मचर्य का त्याग एवं शस्त्र, मूसल आदि व्यवसायादि तथा आरम्भादि सांसारिक एवं सावध कार्यों का त्याग करना अनिवार्य होता है तथा एक अहोरात्रि (आठ पहर) तक आत्मचिन्तन, स्वाध्याय, धर्मध्यान एवं सावधप्रवृत्तियों के त्याग में बिताना होता है। भगवतीसूत्र में उल्लिखित शंख श्रावक के वर्णन से अशन-पान का त्याग किये बिना भी पोषध किया जाता था, जिसे देशपोषध (या दया-छकायव्रत) कहते हैं । वसुनन्दिश्रावकाचार के अनुसार-दिगम्बर परम्परा में प्रोषध के तीन प्रकार बताये हैं (१) उत्तम प्रोषधचतुर्विध आहारत्याग, (२) मध्यम प्रोषध—त्रिविध आहारत्याग और (३) जघन्य प्रोषध-आयम्बिल (आचाम्ल), निर्विकृतिक, एक स्थान और एक भक्त। बौद्ध साहित्य में आर्य-उपोसथ का स्वरूप भी लगभग जैन (देश-पोषध) जैसा ही है। पोषध का शब्दशः अर्थ होता है-धर्म के पोष (पुष्टि ) को धारण करने वाला।
छविपव्वाओ में 'छविपर्व' का तात्पर्य –छवि का अर्थ है-चमड़ी और पर्व का अर्थ है-शरीर के संधिस्थल-घुटना, कोहनी आदि। इसका तात्पर्य है-मानवीय औदारिकशरीर (हड्डी, चमड़ी आदि स्थूल पदार्थों से बना शरीर)। १. (क) उत्तराध्ययनचूर्णि, पृ० १३९ (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र २५१ (ग) विशेषावश्यकभाष्य, गा० ११९६ २. (क) उत्तरा. चूर्णि, पृ.१३९ (ख) स्थानांग, ३/१/१५०,४/३/३१४ (ग) भगवती १२/१
(घ) वसुनन्दि श्रावकाचार, श्लोक २८०-२९४ (ङ)अंगुत्तरनिकाय २१२-२२१, पृ. १४७ ३. (क)छविश्चत्वक् पर्वाणि च जानुकूर्परादीनि छविपर्व, तद्योगाद् औदारिकशरीरमपि छविपर्व, ततः।-सुखबोधा, १०७
(ख) बृहद्वृत्ति, पत्र २५२