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उत्तराध्ययन सूत्र
के अनुसार भिक्षुओं को विषमशील इसलिए कहा गया है कि तापस, पांडुरंग आदि कुछ कुप्रवचनभिक्षु अभ्युदय (ऐहिक उन्नति) की ही कामना करते हैं, जो मोक्षसाधना के लिए उद्यत हुए हैं, वे भी उसे सम्यक् प्रकार से नहीं समझते, वे आरम्भ से मोक्ष मानते हैं तथा लोकोत्तर भिक्षु भी सभी निदान, शल्य और अतिचार से रहित नहीं होते, आकांक्षारहित तप करने वाले भी नहीं होते हैं। ___'संति एगेहिं.' साहवो संजमुत्तरा' का आशय - इस गाथा का अभिप्राय यह है कि अव्रती अचारित्री या नामधारी भिक्षुओं की अपेक्षा सम्यग्दृष्टियुक्त देशविरत गृहस्थ संयम में श्रेष्ठ होते हैं। किन्तु उन सब देशविरत गृहस्थों की अपेक्षा सर्वविरत भावभिक्षु संयम में श्रेष्ठ होते हैं, क्योंकि उनका संयम व्रत परिपूर्ण है। इसे एक संवाद द्वारा समझाया गया है। एक श्रावक ने साधु ने पूछा-'श्रावकों और साधुओं में कितना अन्तर है? साधु ने कहा—सरसों और मंदरपर्वत जितना। श्रावक ने फिर पूछा—कुलिंगी(वेशधारी) साधु और श्रावक में क्या अन्तर है? साधु ने उत्तर दिया-वही, सरसों और मेरुपर्वत जितना। श्रावक का इससे समाधान हो गया। _ 'चीराजिणं. दुस्सीलं परियागतं' का तात्पर्य—इस गाथा को उल्लिखित करके शास्त्रकार ने 'गृहस्थ कई भिक्षुओं से संयम में श्रेष्ठ होते हैं' इस वाक्य का समर्थन किया है। इस गाथा में उस युग के विभिन्न धर्मसम्प्रदायों के साधु-संन्यासियों, तापसों, परिव्राजकों या भिक्षुओं के द्वारा सुशीलपालन की उपेक्षा करके मात्र विभिन्न बाह्य वेषभूषा से मोक्ष या स्वर्ग प्राप्त हो जाने की मान्यता का खण्डन किया गया है। सम्यक्त्वपूर्वक अतिचार-निदान-शल्यरहित व्रताचरण को ही मुख्यतया सकाममरण के अनन्तर स्वर्ग का अधिकारी माना गया है। ___'चीर' के दो अर्थ—चीवर और वल्कल । नगिणिणं का अर्थ-चूर्णिकार ने नग्नता किया है तथा उस युग के कुछ नग्न-सम्प्रदायों का उल्लेख भी किया है-मृगचारिक, उदण्डक और आजीवक। संघाडिसंघाटी— कपड़े के टुकड़े को जोड़ कर बनाया गया साधुओं का उपकरण । बौद्ध श्रमणों में यह प्रचलित था। मुंडिणं का अर्थ जो अपने संन्यासाचार के अनुसार सिर मुंडा कर चोटी कटाते थे, उनके आचार के लिए यह संकेत है।
केवल भिक्षाजीविता नरक से नहीं बचा सकती–उदाहरण—राजगृह नगर में एक उद्यान में नागरिकों ने बृहद् भोज किया। एक भिक्षुक नगर में तथा उद्यान में जगह-जगह भिक्षा मांगता फिरा, उसने दीनता भी १. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र २४९ (ख) उत्तरा० चूर्णि, पृष्ठ १३७ २. बृहवृत्ति, पत्र २५० ३. (क) चर्मवल्कलचीराणि, कूर्चमुण्डशिखाजटाः।
न व्यपोहन्ति पापानि, शोधकौ तु दयादमौ॥ -सुखबोधा, पत्र १२७ में उद्धृत (ख) न नग्गचरिया न जटा न पंका, नानासका थंडिलसायिका वा।
रज्जो च जल्लं उक्कटिप्पधानं सोधेति मच्च अवितिण्णकंखं॥-धम्मपद १०/१३ (ग) 'चीरं वल्कलं-चूर्णि पृ०,१३८ 'चीराणि चीवराणि'-बृहद्वत्ति, पत्र २५० (घ) उत्तराध्ययनचूर्णि, पृ० १३८ (ङ) 'संघाटी'-वस्त्रसंहतिजनिता बृहद्वृति, पत्र २५०, विशुद्धिमार्ग १/२ पृ०६० (च) मुंडिणं ति - यत्र शिखाऽपि स्वसमयतश्छिद्यते, ततः प्राग्वद मुण्डिकत्वम्। -बृ० वृ०, पत्र २५०