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________________ -द्वितीय अध्ययन परीषह-प्रविभक्ति अध्ययन-सार * प्रस्तुत द्वितीय अध्ययन का नाम 'परीषह-प्रविभक्ति' है। * संयम के कठोर मार्ग पर चलने वाले साधक के जीवन में परीषहों का आना स्वाभाविक है, क्योंकि साधु का जीवन पंच महाव्रत, पांच समिति, तीन गुप्ति, अथवा सम्यग्दर्शन, सम्यग्यज्ञान और सम्यक् चारित्र की मर्यादाओं से बंधा हुआ है। उन मर्यादाओं के पालन से साधुजीवन की सुरक्षा होती है। मर्यादाओं का पालन करते समय संयममार्ग से च्युत करने वाले कष्ट एवं संकट ही साधु की कसौटी हैं कि उन कष्टों एवं संकटों का हंसते-हंसते धैर्य एवं समभाव से सामना करना और अपनी मौलिक मर्यादाओं की लक्ष्मणरेखा से बाहर न होना, अपने अहिंसादि धर्मों को सुरक्षित रखना उन पर विजय पाना है। प्रस्तुत अध्ययन में साधु, साध्वियों के लिए क्षुधा, पिपासा आदि २२ परीषहों पर विजय पाने का विधान है। * सच्चे साधक के लिए परीषह बाधक नहीं, अपितु कर्मक्षय करने में साधक एवं उपकारक होते हैं। साधक मोक्ष के कठोर मार्ग पर चलते हुए किसी भी परीषह के आने पर घबराता नहीं, उद्विग्न नहीं होता, न ही अपने मार्ग या व्रत-नियम-संयम की मर्यादा-रेखा से विचलित होता है। वह शान्ति से, धैर्य से समभावपूर्वक या सम्यग्ज्ञानपूर्वक उन्हें सहन करके अपने स्वीकृत पथ पर अटल रहता है। उन परीषहों के दबाव में आकर वह अंगीकृत प्रतिज्ञा के विरुद्ध आचरण नहीं करता। वह वस्तुस्थिति का द्रष्टा होकर उन्हें मात्र जानता है, उनसे परिचित रहता है, किन्तु आत्मजागृतिपूर्वक संयम की सुरक्षा का सतत ध्यान रखता है। * परीषह का शब्दशः अर्थ होता है जिन्हें (समभावपूर्वक आर्तध्यान के परिणामों के विना) सहा जाता है, उन्हें परीषह कहते हैं। यहाँ कष्ट सहने का अर्थ अज्ञानपूर्वक, अनिच्छा से, दबाव से, भय से या किसी प्रलोभन से मन, इन्द्रिय और शरीर को पीड़ित करना नहीं है। समभावपूर्वक कष्ट सहने के पीछे दो प्रयोजन होते हैं—(१) मार्गाच्यवन और (२) निर्जरा अर्थात् जिनोपदिष्ट स्वीकृत मोक्षमार्ग से च्युत न होने के लिए और निर्जरा-समभावपूर्वक सह कर कर्मों को क्षीण करने के लिए। यही परीषह का लक्षण है। * परीषह-सहन या परीषह-विजय का अर्थ जानबूझ कर कष्टों को बुला कर शरीर, इन्द्रियों या मन को पीडा देना नहीं है और न आए हए कष्टों को लाचारी से सहन करना है। परीषह-विजय का अर्थ है-दु:ख या कष्ट आने पर भी संक्लेश मय परिणामों का न होना, या अत्यन्त भयानक क्षुधादि वेदनाओं को सम्यग्ज्ञानपूर्वक समभाव से शान्तिपूर्वक सहन करना, अथवा क्षुधादि वेदना उपस्थित होने पर निजात्मभावना से उत्पन्न निर्विकार नित्यानन्दरूप सुखामृत अनुभव से विचलित १. परिषह्यत इति परिषहः।-राजवार्तिक ९/२/६/५९२/२ २. मार्गाऽच्यवननिर्जरार्थं परिषोढव्याः परीषहाः।-तत्त्वार्थ. ९/८
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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