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उत्तराध्ययनसूत्र
मलपंकपुव्वयं-दो अर्थ-(१) आत्मशुद्धि का विघातक होने से पाप-कर्म एक प्रकार का मल है और वही पंक है । इस शरीर की प्राप्ति का कारण कर्ममल होने से वह भावतः मलपंकपूर्वक है, (२) इस शरीर की उत्पत्ति माता के रज और पिता के वीर्य से होती है, माता का रज-मल है और पिता का वीर्य पंक है, अतः यह देह द्रव्यतः भी मल-पंक (रज-वीर्य) पूर्वक है।
अप्परए—दो रूप : दो अर्थ (१) अल्परजा:-जिसके बध्यमान कर्म अल्प हैं, (२) अल्परतजिसमें मोहनीयकर्मोदयजनित रत-क्रीड़ा का अभाव हो।
॥ प्रथम : विनयसूत्र अध्ययन समाप्त॥
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२. बृहद्वृत्ति, पत्र ६७
(क) 'माओउयं पिउसुक्कं ति वचनात् रक्तशुक्रे एव मलपंको तत्पूर्वकं-मलपंकपूर्वकम्। (ख) अप्परएत्ति-अल्पमिति अविद्यमानं रतमिति क्रीडितं मोहनीयकर्मोदयजनितमस्य अल्परतो लवसप्तमादिः अल्परजाः वा प्रतनुबध्यमानकर्मा।