________________
उत्तराध्ययनसूत्र
यह है आचार्य को अपनी दुश्चेष्टाओं से अनशन आदि के लिए बाध्य करने वाले बुद्धोपघाती शिष्यों का
दृष्टान्त !
तोत्तगवेसए–तोत्त—तोत्र का अर्थ है-जिससे व्यथित किया जाए। द्रव्यतोत्र चाबुक प्रहार आदि हैं और भावतोत्र हैं-दोषोद्भावन, तिरस्कारयुक्त वचन, व्यथा पहुँचाने वाले वचन अथवा छिद्रान्वेषण आदि।
पत्तिएण-दो रूम प्रातीतिकेन, प्रीतिकेन । इनके अर्थ क्रमशः शपथादिपूर्वक प्रतीतिकारक वचनों से एवम् प्रीति—शांतिपूर्वक हार्दिक भक्ति से । विनीत को लौकिक और लोकोत्तर लाभ
४५. नच्चा नमइ मेहावी लोए कित्ती से जायए।
___हवई किच्चाणं सरणं भूयाणं जगई जहा॥ [४५.] पूर्वोक्त विनयसूत्रों (या विनयपद्धतियों) को जान कर मेधावी मुनि उन्हें कार्यान्वित करने में विनत हो (झुक-लग) जाता है, उसकी लोक में कीर्ति होती है। प्राणियों के लिए जिस प्रकार पृथ्वी आश्रयभूत (शरण) होती है, उसी प्रकार विनयी शिष्य धर्माचरण (उचित अनुष्ठान) करने वालों के लिए आश्रय (आधार) होता है।
४६. पुजा जस्स पसीयन्ति संबुद्धा पुव्वसंथुया।
__ पसन्ना लाभइस्सन्ति विउलं अट्ठियं सुयं॥ [४६.] शिक्षण-काल से पूर्व ही उसके विनयाचरण से सम्यक् प्रकार से परिचित (संस्तुत), सम्बुद्ध, (सम्यक् वस्तुतत्त्ववेत्ता) पूज्य आचार्य आदि उस पर प्रसन्न रहते हैं। प्रसन्न होकर वे उसे मोक्ष के प्रयोजनभूत (या अर्थगम्भीर) विपुल श्रुतज्ञान का लाभ करवाते हैं।
४७. स पुज्जसत्थे सुविणीयसंसए मणोरुई चिट्ठइ कम्म-संपया।
__तवोसमायारिसमाहिसंवुडे महज्जुई पंच वयाइं पालिया॥ [४७.] (गुरुजनों की प्रसन्नता से विपुल शास्त्रज्ञान प्राप्त) वह शिष्य पूज्यशास्त्र होता है, उसके समस्त संशय दूर हो जाते हैं। वह गुरु के मन को प्रीतिकर होता है तथ कर्मसम्पदा से युक्त हो कर रहता है। वह तप-समाचारी और समाधि से संवृत (सम्पन्न) हो जाता है तथा पांच महाव्रतों का पालन करके वह महान् द्युतिमान (तपोदीप्ति-युक्त) हो जाता है।
४८. स देव-गन्धव्व-मणुस्सपूइए चइत्तु देहं मलपंकपुव्वयं। सिद्धे वा हवइ सासए देवे वा अप्परए महिड्ढिए॥
-त्ति बेमि॥ [४८.] देवों, गन्धर्वो और मनुष्यों से पूजित वह विनीत शिष्य मल-पंक-पूर्वक निर्मित इस देह को १. (क) उत्तराध्ययनचूर्णि, पृ० ४२ (ख) बृहवृत्ति, पत्र ६२-६३ २. (क) उत्तराध्ययनचूर्णि, पृ. ४२
(ख) बृहवृत्ति, पत्र ६२ ३. बृहद्वृत्ति, पत्र ६३