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________________ प्रथम अध्ययन : विनयसूत्र अट्ठजुत्ताणि—अर्थयुक्त के तीन अर्थ - (१) हेयोपादेयाभिधायक अर्थयुक्त — आगम (उपदेशात्मक सूत्र) वचन, (२) मुमुक्षुओं के लिए अर्थ - मोक्ष से संगत उपाय और (३) साधुजनोचित अर्थयुक्त । ' निरद्वाणि – निरर्थक के तीन अर्थ - ( १ ) डित्थ, डवित्थ आदि अर्थशून्य, निरुक्तशून्य पद, (२) , काममनोविज्ञान या स्त्रीविकथादि अनर्थकर वचन, (३) लोकोत्तर अर्थ-प्रयोजन या उद्देश्य से रहित कामशास्त्र, शास्त्र । २ कीडं— क्रीडा के तीन अर्थ - (१) खेलकूद, (२) मनोविनोद या किलोल आदि, (३) अंत्याक्षरी, प्रहेलिका, हस्तलाघव आदि से जनित कौतुक । ९ चंडालियं— के तीन अर्थ - (१) चण्ड (क्रोध भयादि) के वशीभूत होकर अलीक—-असत्यभाषण, (२) चाण्डाल जाति में होने वाले क्रूरकर्म, (३) 'मा अचंडालियं' पद मान कर - हे अचण्ड – सौम्य ! अलीक— (गुरुवचन या आगमवचन का विपरीत अर्थ - कथन करके) असत्याचरण मत करो। अत्यधिक भाषण- निषेध के तीन मुख्य कारण – (१) बोलने का विवेक न रहने से असत्य बोला जाएगा या विकथा करने लगेगा, (२) अधिक बोलने से ध्यान, स्वाध्याय, अध्ययन आदि में विक्षेप होगा, (३) वातक्षोभ या वात कुपित होने की शंका है । ५ समय पर अध्ययन और एकाकी ध्यान-साधु के लिए स्वाध्याय, अध्ययन, भोजन, प्रतिक्रमण आदि सभी प्रवृत्तियाँ यथाकाल और मण्डली में करने का विधान प्रवचनसारोद्धार में सूचित किया है, किन्तु ध्यान एकाकी (द्रव्य से विविक्त शय्यासनादियुक्त तथा भाव से रागद्वेषादिरहित होकर) किया जाता है; जैसा कि उत्तराध्ययनचूर्णि में लौकिक प्रतिपत्ति का संकेत है— एक का ध्यान, दो का अध्ययन और तीन आदि का ग्रामान्तरगमन । अविनीत और विनीत शिष्य का स्वभाव १२. मा गलियस्सेव कसं, वयणमिच्छे पुणो पुणो । कसं व दट्टुमाइणे, पावगं परिवज्जए ॥ [१२] जैसे गलिताश्व (अडियल - अविनीत घोड़ा) बार- बार चाबुक की अपेक्षा रखता है, वैसे (विनीत शिष्य) ( गुरु के आदेश ) वचन की अपेक्षा न करे किन्तु जैसे आकीर्ण ( उत्तम जाति का शिक्षित ) अश्व चाबुक को देखते ही उन्मार्ग को छोड़ देता है, वैसे ही गुरु के आकारादि को देख कर ही पापकर्म (अशुभ आचरण) को छोड़ दे। १३. अणासवा थूलवया कुसीला, मिउंपि चण्डं पकरेंति सीसा । चित्ताणुया लहु दक्खोववेया, पसायए ते हु दुरासयं पि ॥ (ख) उत्तराध्ययनचूर्णि, पृ० २८ (ख) उत्तराध्ययनचूर्णि, पृ० २९ (ग) सुखबोधा, पत्र ३ (ख) उत्तराध्ययनचूर्णि, पृ० २९ १. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र ४६-४७ २. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र ४७ ३-४ (क) बृहद्वृत्ति, पत्र ४७ ५. बृहद्वृत्ति, पत्र ४७ ६. उक्तं हि —' एकस्य ध्यानं, द्वयोरध्ययनं, त्रिप्रभृति ग्रामः ' एवं लौकिकाः संप्रतिपन्नाः । ' - उत्तराध्ययनचूर्णि, पृ०२९
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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