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प्रथम अध्ययन
विनयसूत्र
अध्ययनसार
* प्रस्तुत प्रथम अध्ययन का नाम चूर्णि के अनुसार "विनयसूत्र" है । निर्युक्ति, बृहद्वृत्ति एवं समवायांगसूत्र के अनुसार 'विनयश्रुत २ है । 'श्रुत' और 'सूत्र' दोनों पर्यायवाची शब्द हैं।
* इस अध्ययन में विविध पहलुओं से भिक्षाजीवी निर्ग्रन्थ निःसंग अनगार के विनय की श्रुति अथवा विनय के सूत्रों का निरूपण किया गया है । ३
* विनय मुक्ति का प्रथम चरण है, धर्म का मूल है तथा दूसरा आभ्यन्तर तप है। विनयरूपी मूल के विना सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्ररूपी पुष्प नहीं प्राप्त होते तो मोक्षरूप फल की प्राप्ति भी कहाँ से होगी ?
* मूलाचार के अनुसार विनय की पृष्ठभूमि में निम्नोक्त गुण निहित हैं - (१) शुद्ध धर्माचरण, (२) जीतकल्प-मर्यादा, (३) आत्मगुणों का उद्दीपन, (४) आत्मिक शुद्धि, (५) निर्द्वन्द्वता, (६) ऋजुता, (७) मृदुता, (नम्रता, निश्छलता, निरहंकारिता), (८) लाघव (अनासक्ति), (९) गुण-गुरुओं के प्रति भक्ति, (१०) आह्लादकता, (११) कृति — वन्दनीय पुरुषों के प्रति वन्दना, (१२) मैत्री, (१३) अभिमान का निराकरण, (१४) तीर्थंकरों की आज्ञा का पालन एवं (१५) गुणों का अनुमोदन । * यद्यपि प्रस्तुत अध्ययन में विनय की परिभाषा नहीं दी है, किन्तु विनयी और अविनयी के स्वभाव और व्यवहार तथा उसके परिणामों की चर्चा विस्तार से की है, उस पर से विनय और अविनय की परिभाषा स्पष्ट हो जाती है। व्यक्ति का बाह्य व्यवहार एवं आचरण ही उसके अन्तरंग भावों का प्रतिबिम्ब होता है। इसलिए प्रस्तुत अध्ययन में वर्णित विनीत शिष्य के विविध व्यवहार एवं आचरण पर से विनय के निम्नोक्त अर्थ फलित होते हैं – (१) गुरु - आज्ञा-पालन, (२) गुरु की सेवाशुश्रुषा (३) इंगिताकारसंप्रज्ञता, (४) सुशील (सदाचार) सम्पन्नता, (५) अनुशासन-शीलता, (६) मानसिक वाचिक - कायिक नम्रता, (७) आत्मदमन, (८) अनाशातना, (९) गुरु के प्रति
१.
प्रथममध्ययनं विनयसुत्तमिति, विनयो यस्मिन् सूत्रे वर्ण्यते तदिदं विनयसूत्रम् । उ० चू० प० ८
२. (क) उत्तरा० नियुक्ति गा० २८ – तत्थज्झयणं पढमं विणयसुयं ।
(ख) विनयश्रुतमिति द्विपदं नाम । - बृ०वृ० प०१५
(ग) 'छत्तीसं उत्तरज्झयणा प० तं विणयसुयं । समवायांग, समवाय ३६
३. एवं धम्मस्स विणओ मूलं, परमो से मोक्खो ।
जेण कित्तिं सुयं सिग्घं निस्सेसं चाभिगच्छई ॥ दशवै० अ० ९, उ०२, गा० २
४. आयारजीदकप्पगुणदीवणा, अत्तसोधी णिज्जंजा । अज्जव मद्दव -लाहव-भत्ती पल्हादकरणं च ॥ कित्ती मित्ती माणस्स भंजणं, गुरुजणे य बहुमाणं । तित्थयराणं आणा, गुणाणुमोदो य विणयगुणा ॥
-मूलाचार ५ / २१३-२१४