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________________ प्रथम अध्ययन : द्रुमपुष्पिका १५ करना । ५. कायक्लेश- शीत, उष्ण आदि को सहन करना, धर्म पालन के लिए केशलोच, पैदलविहार आदि कष्टों को सहना, वीरासन आदि उत्कट आसनों से शरीर को संतुलित एवं स्थिर रखना । ६. प्रतिसंलीनताइन्द्रियों के शब्द आदि विषयों में रागद्वेष न करना, स्त्री- पशु - नपुंसक - रहित विविक्त स्थान में निवास करना, उदय में आए हुए क्रोधादि को विफल करना और अनुदीर्ण क्रोध आदि का निरोध करना, अकुशल मन आदि को नियंत्रित करके कुशल मन आदि को प्रवृत्त करना । २८ आभ्यन्तर तप के ६ भेद हैं- (१) प्रायश्चित्त, (२) विनय, (३) वैयावृत्त्य, (४) स्वाध्याय, (५) ध्यान और (६) व्युत्सर्ग। १. प्रायश्चित्त— साधनामय जीवन में लगे हुए अतिचारों या दोषों की विशुद्धि करने के लिए प्रतिक्रमण, आलोचना, निन्दना, गर्हणा आदि करके प्रायश्चित्त ग्रहण करना । २. विनय — देव गुरु और धर्म तथा ज्ञानादि के प्रति विनय करना, श्रद्धा, भक्ति- बहुमान आदि करना। ३. वैयावृत्त्य — आचार्य आदि १० प्रकार के साधकों तथा साधर्मी एवं संघ की शुद्ध आहार पानी आदि से सेवा करना । ४. स्वाध्याय— वाचना, पृच्छा, अनुप्रेक्षा (चिन्तन) परिवर्तना और धर्मकथा ( व्याख्यान आदि) के द्वारा श्रुतज्ञान की आराधना करना । ५. ध्यान — आर्त और रौद्र ध्यान का परित्याग करके धर्मध्यान एवं शुक्लध्यान द्वारा मन को एकाग्र करना, चित्त को तन्मय करना । ६. व्युत्सर्ग— काया आदि के व्यापार का एवं शरीर और शरीर से सम्बन्धित वस्तुओं, उपकरणों के ममत्व का त्याग करना, कषाय- आदि का व्युत्सर्जन करना । २९ अहिंसा से स्व-पर का हित है, सबको शान्ति मिलती है, इसलिए अहिंसा धर्म है। संयम से दुष्प्रवृत्तियां रुकती हैं, तृष्णा मन्द हो जाती हैं, संयमी पुरुषों के संयम- पालन से अनेक दुःखितों को आश्वासन मिलता है, राष्ट्र में शान्ति का प्रचार होता है, इसलिए संयम धर्म है । तप से अन्तःकरणशुद्धि होती है, इसलिए तप धर्म है। धर्म और अहिंसादि के पृथक्-पृथक् उल्लेख का कारण यह है कि धर्म शब्द अनेक अर्थों में प्रयुक्त होता है, जैसा कि पहले बताया गया था । लौकिक धर्म अहिंसादि से युक्त नहीं होते, इसलिए कहीं ये धर्म भी उत्कृष्ट मंगल रूप न समझे जाएं, इस दृष्टि से उत्कृष्ट मंगल रूप श्रमणधर्म को इनसे पृथक् करने हेतु अहिंसा, संयम और तप का विशेष रूप से उल्लेख किया गया है। इसका फलितार्थ यह है कि जो धर्म अहिंसा, संयम और तप रूप है, वही उत्कृष्ट मंगल है, शेष गम्यादि धर्म नहीं । ४१ धर्म का माहात्म्य और फल — धर्म का माहात्म्य अपार है । 'तंदुलवैचारिक' नामक ग्रन्थ में धर्म का माहात्म्य बताते हुए कहा गया है— 'सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चरणात्मक धर्म त्राणरूप है, शरणरूप है, धर्म सुगति रूप है, ३८. दशवै. ( आ.म. मंजूषा टीका) भा. १, पृ. ६७-३८ ३९. (क) पायच्छित्तं विणओ वेयावच्चं तहेव सज्झाओ । झाणं च विउस्सग्गो, एसो अब्धिंतरो तवो ॥ (ख) दशवै. (आचारमणिमंजूषा टीका) भा. १, पृ. ६९-७० ४०. दशवै. ( गुजराती अनुवाद संतबालजी), पृ. ४ ४१. जिनदासचूर्णि, पृ. ३८ — उत्तरा. अ. ३०, गा. ३९
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
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