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दशवैकालिकसूत्र
धर्म संसारगर्त में पड़ने वाले के लिए प्रतिष्ठान (आधार) रूप है। सम्यक् प्रकार से आचरित धर्म अजर-अमर स्थान को प्राप्त कराता है। आचरित धर्म उसके पालक के प्रति जनसमुदाय द्वारा यहां और परलोक में भी प्रीति उत्पन्न करने वाला है, वह कीर्ति दिलाने वाला है, तेजस्वी बनाता है, यशस्वी बनाता है, प्रशंसनीय एवं रमणीय बनाता है, अभय बनाता है और निर्वृतिकर (शान्तिप्रद) है, सर्वकर्मक्षय करने वाला है। सम्यक् प्रकार से आचरित धर्म के प्रभाव से मनुष्य महर्द्धिक देवों में उत्पन्न होकर अनुपम रूप, भोगोपभोग-सामग्री और ऋद्धि प्राप्त करता है तथा या तो वह केवलज्ञान प्राप्त करता है, अथवा मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्यव, इन चार या तीन ज्ञानों को प्राप्त करता है। धर्मनिष्ठ व्यक्ति देवेन्द्रपद प्राप्त करता है अथवा राज्य के समस्त (सप्त) अंगों सहित चक्रवर्ती पद एवं अभीष्ट भोगसामग्री प्राप्त करता है या वह निर्वाण प्राप्त करता है।
प्रस्तुत गाथा के उत्तरार्द्ध में यह बताया गया है कि जिसका मन सदैव धर्म में लीन एवं तन्मय रहता है, उस धर्मात्मा की महिमा देवों से भी अधिक होती है। साधारण लोग, यहां तक कि राजा-महाराजा एवं चक्रवर्ती आदि तो उसका अनुग्रह पाने के लिए उसकी वन्दना, नमन, सेवाप्रतिष्ठा आदि करते ही हैं, लोकपूज्य तथा महाऋद्धि-द्युतिऐश्वर्य-सम्पन्न देव एवं देवेन्द्र भी उसकी वन्दना, पर्युपासना, स्तुति आदि करने में अपना अहोभाग्य एवं कल्याण समझते हैं। धर्मिष्ठ पुरुष का जीवन और व्यक्तित्व ही इतना महान् आकर्षक और तेजस्वी होता है कि वह विश्वबन्ध बन जाता है। यद्यपि धर्मात्मा पुरुष को धर्म के सम्यक् आचरण से आत्मा की विशुद्धि एवं विकास के साथ-साथ असाधारण सांसारिक पूजा-प्रतिष्ठा, मान-सम्मान आदि आनुषंगिक फल के रूप में स्वतः प्राप्त होते हैं, परन्तु धर्मिष्ठ व्यक्ति धर्म-पालन के आनुषंगिक फलस्वरूप प्राप्त होने वाली ऐसी सांसारिक ऋद्धि, सिद्धि या लब्धि की प्राप्ति या अन्य किसी सांसारिक उपलब्धि के लिए धर्माचरण न करे, केवल निर्जरा (आत्मशुद्धि) या अर्हन्तों द्वारा उपदिष्ट मोक्ष के हेतु से ही धर्माचरण करे, ऐसी तीर्थंकर प्रभु की आज्ञा है।" श्रमणधर्म : भिक्षाचरी और मधुकर-वृत्ति
२. जहा दुमस्स पुप्फेसु भमरो आवियइ रसं । ___न य पुष्पं किलामेइ, सो य पीणेइ अप्पयं ॥ ३. एमेए समणा मुत्ता, जे लोए संति साहुणो ।
विहंगमा व पुप्फेसु, दाण-भत्तेसणे रया ॥ ४. वयं च वित्तिं लब्भामो, न य कोइ उवहम्मइ ।
अहागडेसु रीयंते, पुप्फेसु भमरा जहा ॥ [२] जिस प्रकार भ्रमर, वृक्षों के पुष्पों में से थोड़ा-थोड़ा रस पीता है तथा (किसी भी) पुष्प को पीड़ा नहीं पहुंचाता (म्लान नहीं करता) और वह अपने आपको (भी) तृप्त कर लेता है ॥२॥
४२. 'तंदुवेयालियं' ४३. दशवै. (आचार्य श्री आत्मारामजी म.), पृ.७ ४४. दशवै. अ. ९, उ. ४, सू. ५-६