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________________ दशवैकालिकसूत्र रखकर इतनी सावधानी (यतना एवं विवेक) से प्रवृत्ति करना चाहिए कि किसी भी जीव के द्रव्य या भाव प्राणों की, अथवा स्वयं की आत्मा की विराधना न हो।२ ___ अहिंसा और संयम की अभिन्नता- अहिंसा को भगवान् महावीर ने व्रतों में सर्वश्रेष्ठ बताया है। उन्होंने परिपूर्ण या निपुण अहिंसा का उपदेश समस्त प्राणियों के प्रति संयम के अर्थ में दिया है। इस दृष्टि से सर्व जीवों के प्रति संयम अहिंसा है और हिंसा आदि आश्रवों से विरति संयम है। इस प्रकार जो अहिंसा है वही संयम है। प्रश्न होता है— जब अहिंसा ही संयम है, तब संयम का पृथक् उल्लेख क्यों किया गया? आचार्य हरिभद्रसूरि ने इसका समाधान करते हुए कहा-अहिंसा का अर्थ है सर्वथा प्राणातिपात-विरमण आदि पांच महाव्रत और संयम है—उनकी रक्षा के लिए यथावश्यक नियमोपनियमों का पालन। इस दृष्टि से संयम, अहिंसा को टिकाने के लिए आवश्यक है, उसका अहिंसा पर उपग्रहकारित्व है। तप : स्वरूप, प्रकार और विश्लेषण- जो ज्ञानावरणीय आदि आठ प्रकार की कर्मग्रन्थि को तपाता है, जलाता है, नाश करता है, वह तप है।५ प्राचीन आचार्यों ने तप का एक लक्षण किया है-वासना या इच्छा का निरोध करना। मलिन चित्तवृत्ति की शुद्धि के लिए आन्तरिक एवं बाह्य क्रियाएं करना तपश्चर्या है। बाह्य या आभ्यन्तर जितने भी तप हैं, उनका आचरण इहलौकिक तथा पारलौकिक नामना, कामना या वासना से रहित होकर केवल निर्जरा (कर्मक्षय द्वारा आत्मशुद्धि) की दृष्टि से करना ही धर्म है।२६ तप के मुख्य दो भेद हैं— बाह्य और आभ्यन्तर। बाह्यतप के ६ भेद हैं— (१) अनशन, (२) ऊनोदरी, (३) भिक्षाचर्या (अथवा वृत्तिपरिसंख्यान), (४) रसपरित्याग, (५) कायक्लेश और (६) प्रतिसंलीनता (अथवा विविक्तशयनासन)।३७ १. अनशन— चतुर्विध या त्रिविध आहार का एक दिन, अधिक दिन या जीवनभर के लिए परित्याग करना। २. ऊनोदरी– आहार, उपकरण आदि की मात्रा में कमी करना, क्रोधादि कषाय को घटाना। ३. भिक्षाचर्या-(साधुओं की अपेक्षा) विशुद्ध भिक्षा के लिए पर्यटन करना (गृहस्थों की अपेक्षा) द्रव्यों अथवा उपभोग्य पदार्थों की प्रतिदिन गणना का नियम रखना वृत्तपरिसंख्यान है। ४. रसपरित्याग- आयम्बिल, निविग्गइ आदि तप के माध्यम से दूध, दही, घी, तेल, मीठा आदि रसों का त्याग करना, स्वादवृत्ति पर विजय प्राप्त ३२. दशवैकालिक (आचार्य श्री आत्मारामजी म.), पृष्ठ ५ ३३. दश. अ. ६ गा. ९ ३४. हारि. वृत्ति, पत्र २६ ३५. (क) तवोनाम तावयति अट्ठविहं कम्मगंठिं नासेति त्ति वुत्तं भवइ । -जिनदास चूर्णि, पृष्ठ १५ (ख) तपति ज्ञानावरणीयाद्यष्टविधं कर्म दहतीति तपः । -दशवै. आ. मणि. मं., भाग १, पृ. ६७ ३६. (क) 'इच्छानिरोधस्तपः' (ख) दशवै. (आ. आत्मा), पृ.६ -दशवै. (गु. अनु. संतबालजी), पृ. ४ ३७. (क) अणसणमूणोयरिया भिक्खायरिया य रसपरिच्चाओ । कायकिलेसो संलीणया य बज्झो तवो होइ ॥ . उत्तरा. अ. ३०, गा.८ (ख) अनशनाऽवमौदर्य-वृत्तिपरिसंख्यान-रसपरित्याग-विविक्तशय्यासन-कायक्लेशाः बाह्यं तपः । -तत्त्वार्थ. अ. ९
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
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