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दसवेयालियसुत्तं : दशवैकालिकसूत्र पढमं दुमपुफियऽज्झयणं : प्रथम द्रुमपुष्पिकाऽध्ययन
प्राथमिक
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आत्मा
। यह दशवैकालिकसूत्र का प्रथम द्रुमपुष्पिका अध्ययन है।
इसमें धर्म का लक्षण, उसकी उत्कृष्ट मंगलमयता और धर्म का फल तथा भिक्षाजीवी साधु के जीवन में मधुर स्वभाववत् उस धर्म की आचारणीयता का प्रतिपादन किया है। आत्मा का पूर्ण विकास, आत्मा पर आए हुए कर्मरूप आवरणों से सर्वथा मुक्ति, राग-द्वेष, मोह, कषाय आदि वैभाविक भावों से सर्वथा रहित होकर आत्मा के निजगुणों या स्व-स्वभाव में सर्वथा रमण ही मोक्ष है। यही मुमुक्षु आत्माओं का अन्तिम साध्य है। मोक्षप्राप्ति का साधन धर्म है, जो आत्मा को अपने स्वभाव, निजगुण अथवा सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्र में धारण करके रखता है। सम्यक्चारित्र, सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञानपूर्वक होने से प्रस्तुत में
चारित्रधर्म का ही और उसमें भी अहिंसा, संयम, तपःप्रधान चारित्रधर्म का ग्रहण किया गया है। । यद्यपि मोक्ष परममंगल होता है, किन्तु यहां उसकी उपलब्धि के साधन-धर्म को परममंगल कहा
गया है। ॥ धर्म की महिमा प्रकट करने के बाद प्रथम गाथा के उत्तरार्द्ध में धर्म का आनुषंगिक फल
विश्ववन्दनीयत्व एवं विश्वपूज्यत्व बताया गया है, यद्यपि शुद्धधर्म का साधक किसी भी लौकिक फल की आकांक्षा नहीं रखता। उसकी गति-मति सदैव मोक्ष की ओर अग्रसर होती है, इसीलिए वह धर्म का मन-वचन-काया से शुद्ध रूप से आचरण करता है। धर्म की साधना करते समय तन, मन, वचन तीनों का साहचर्य रहता है। शरीर आहार से ही टिक सकता है, किन्तु आहार आरम्भ के बिना निष्पन्न नहीं होता। ऐसी विकट परिस्थिति में साधक के सामने उलझन है कि वह अहिंसा का त्रिकरण-त्रियोग से कैसे पालन करे ? कैसे संयमधर्म को अक्षुण्ण रखे? और कैसे तपश्चरण करे ? इसी समस्या का समाधान इस अध्ययन की शेष चार गाथाओं में दिया गया है।
समाधान भ्रमर की द्रुम-पुष्पिकावृत्ति के रूप में 'उपमा' के माध्यम से दिया गया है। " जैसे मधुकर के लिए स्वाभाविक रूप से निष्पन्न आहारप्राप्ति के आधार द्रुमपुष्प ही हैं, वैसे ही