SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 90
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ निर्ग्रन्थ भिक्षाजीवी श्रमण के लिए आहारप्राप्ति का आधार गृहस्थों के घरों में सहजनिष्पन भोजन होता है। माधुकरीवृत्ति का मूल केन्द्र द्रुमपुष्प है, उसके बिना वह निभ नहीं सकती। इसलिए समग्र माधुकरीवृत्ति का विशिष्ट प्रतिनिधित्व करने वाला शब्द 'द्रुमपुष्पिका' है। अतएव इस अध्ययन का नाम 'द्रुमपुष्पिका' रखा गया है। माधुकरीवृत्ति से साधु की भिक्षावृत्ति की उपमा के निष्कर्षसूत्र(क) भ्रमर फूलों से सहज-निष्पन्न रस ग्रहण करता है, वैसे ही श्रमण भी गृहस्थों के घरों से अपने स्वयं के लिए नहीं निष्पन्न, प्रासुक एषणीय आहार पानी ले। (ख) भ्रमर फूलों को हानि पहुंचाए बिना थोड़ा-थोड़ा रस पीता है, वैसे ही श्रमण गृहस्थ दाता को तकलीफ न हो, इस विचार से अनेक घरों से थोड़ा-थोड़ा आहार ग्रहण करे। (ग) भ्रमर अपने उदरनिर्वाह के लिए किसी प्रकार का आरम्भ-समारम्भ या जीवों का उपमर्दन नहीं करता, वैसे ही भिक्षाजीवी साधु भी अनवद्यजीवी हो, किसी पचन-पाचनं का आरम्भ या उपमर्दन न करे। (घ) भ्रमर उतना ही रस ग्रहण करता है, जितना उदरपूर्ति के लिए आवश्यक होता है, वह अगले दिन के लिए कुछ भी संग्रह करके नहीं रखता, वैसे ही श्रमण अपनी संयमयात्रा के लिए जितना आवश्यक हो, उतना ही ले, संचय न करे। (ङ) भ्रमर किसी एक ही वृक्ष या फूल से रस ग्रहण नहीं करता, किन्तु अनेक वृक्षों और फूलों से रस ग्रहण करता है, वैसे ही भिक्षाजीवी साधु किसी एक ही (नियत) गांव, नगर, घर या व्यक्ति से प्रतिबद्ध, आसक्त या आश्रित न होकर, समभाव से सहजभाव से उच्च-नीच मध्यम कुल, गांव, घर या व्यक्ति से सामुदानिक भिक्षा से आहार ग्रहण करे। इस प्रकार इस अध्ययन का मुख्य प्रतिपाद्य है उत्कृष्टमंगलरूप अहिंसा-संयम-तपःप्रधानधर्म के आचरण की माधुकरीवृत्ति के माध्यम से सम्भावना। भिक्षु किसी को भी पीड़ा न देकर अहिंसा की, थोड़े-से आहार में निर्वाह करके संयम की तथा न मिलने या कम मिलने पर यथालाभ संतोष या इच्छानिरोध तप की संभावना को चरितार्थ कर बताता है। 00
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy