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________________ का परित्याग कर धर्म और शुक्ल ध्यान में रमण करना, आत्मा के विशुद्ध स्वरूप की ओर गमन करना।२१ इसी भाव कायोत्सर्ग पर बल देते हुए शास्त्रकार ने कहा—कायोत्सर्ग सभी दुःखों का क्षय करने वाला है।२२२ भाव के साथ द्रव्य का कायोत्सर्ग भी आवश्यक है। द्रव्य और भाव कायोत्सर्ग के स्वरूप को समझाने के लिए कायोत्सर्ग के प्रकारान्तर से चार रूप बताए हैं १. उत्थित-उत्थित- जब कायोत्सर्ग के लिए साधक खड़ा होता है, तब द्रव्य के साथ भाव से भी खड़ा होता है। इस कायोत्सर्ग में प्रसुप्त आत्मा जागृत होकर कर्मों को नष्ट करने के लिए खड़ा हो जाता है। यह उत्कृष्ट कायोत्सर्ग है। २. उत्थित-निविष्ट— जो साधक अयोग्य है, वह शरीर से तो कायोत्सर्ग के लिए खड़ा हो जाता है पर भावों में विशुद्धि न होने से उसकी आत्मा बैठी रहती है। ३. उपविष्ट-उत्थित- जो साधक रुग्ण है, तपस्वी है या वृद्ध है, वह शारीरिक असुविधा के कारण खड़ा नहीं हो पाता, वह बैठ कर ही धर्मध्यान में लीन होता है। वह शरीर से बैठा है किन्तु आत्मा से खड़ा है। ४. उपविष्ट-निविष्ट– जो आलसी साधक कायोत्सर्ग करने के लिए खड़ा न होकर बैठा रहता है और कायोत्सर्ग में उसके अन्तर्मानस में आर्त और रौद्र ध्यान चलता रहता है, वह तन से भी बैठा हुआ और भावना से भी। यह कायोत्सर्ग न होकर कायोत्सर्ग का दिखावा है। चूलिका के अन्त में साधक को यह उपदेश दिया गया है कि वह आत्मरक्षा का सतत ध्यान रखे। आत्मा की रक्षा के लिए देह का रक्षण आवश्यक है। वह देहरक्षण संयम है। आत्मा के सद्गुणों का हनन कर जो देहरक्षण किया जाता है वह साधक को इष्ट नहीं होता, अतः सतत आत्मरक्षा की प्रेरणा दी गई है। दशवैकालिक में प्रारम्भ से लेकर अन्त तक यही शिक्षा विविध प्रकार से व्यक्त की गई है। बहिर्मुखी से अन्तर्मुखी होना ही आत्मरक्षा है। तुलनात्मक अध्ययन भारतीय संस्कृति में जैन, बौद्ध और वैदिक इन तीनों धाराओं का अद्भुत सम्मिश्रण है। ये तीनों धाराएं भारत की पुण्य-धरा पर पनपी हैं। इन तीनों धाराओं में परस्पर अनेक बातों में समानता रही है तो अनेक बातों में भिन्नता भी रही है। तीनों धाराओं के विशिष्ट साधकों की अनेक अनुभूतियां समान थीं तो अनेक अनुभूतियां परस्पर विरुद्ध भी थीं। कितनी ही अनुभूतियों का परस्पर विनिमय भी हुआ है। एक ही धरती से जन्म लेने के कारण तथा परस्पर साथ रहने के कारण एक के चिन्तन का दूसरे पर प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था, किन्तु यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि कौन सा समुदाय किसका कितना ऋणी है ? सत्य की जो सहज अनुभूति है उसने जो अभिव्यक्ति का रूप ग्रहण किया, वह प्रायः कभी शब्दों में और कभी अर्थ में एक संदृश रहा है। उसी को हम यहां तुलनात्मक अध्ययन की अभिधा प्रदान कर रहे हैं। इसका यह अभिप्राय कदापि नहीं कि एक दूसरे ने विचार और शब्दों को एक दूसरे से चुराया है। सौ सयाना एक मता' के अनुसार सौ समझदारों का एक ही मत होता है सत्य को व्यक्त करने में समान भाव और भाषा का होना स्वाभाविक है। दशवैकालिक के प्रथम अध्ययन की प्रथम गाथा है २२१. सो पुण काउस्सग्गो दव्वतो भावतो य भवति, दव्वतो कायचेट्ठानिरोहो, भावतो काउस्सग्गो झाणं । आवश्यकचूर्णि २२२. काउस्सग्गं तओ कुज्जा, सव्वदुक्खविमोक्खणं । [५७]
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
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