________________
धम्मो मंगलमुक्किट्ठे अहिंसा संजमो तवो । देवा वि तं नमसंति जस्स धम्मे सया मणो ॥
धर्म उत्कृष्ट मंगल है, अहिंसा, संयम और तप धर्म के लक्षण हैं, जिसका मन सदा धर्म में रमा रहता है, उसे देव भी नमस्कार करते हैं ।
इस गाथा की तुलना करें— धम्मपद (धम्मट्ठवग्गो १९/६) के इस श्लोक से
यम्हि सच्चं च धम्मो च अहिंसा संयमो दमो ।
सवे वन्तमो धीरो सो थेरो ति पवुच्चति ॥
जिसमें सत्य, धर्म, अहिंसा, संयम और दम है, वह मलरहित धीर भिक्षु स्थविर कहलाता है।
वैकालिक के प्रथम अध्ययन की दूसरी गाथा की तुलना धम्मपद (पुप्फवग्गो ४/६ ) से की जा सकती
जहा दुमस्स पुप्फेसु भमरो आवियइ रसं । न य पुप्फं किलामेइ सो य पीणेइ अप्पयं ॥
— दशवैकालिक १/२
जिस प्रकार भ्रमरद्रुम-पुष्पों से थोड़ा-थोड़ा रस पीता है, किसी भी पुष्प को पीड़ा उत्पन्न नहीं करता और अपने को भी तृप्त कर लेता है ।
तुलना करें—
यथापि भमरो पुप्फं वण्णगन्धं अहेठयं । पलेति रसमादाय एवं गामे मुनी चरे ॥
—धम्मपद (पुप्फवग्गो ४ / ६ ) जैसे फूल या फूल के वर्ण या गन्ध को बिना हानि पहुंचाए भ्रमर रस को लेकर चल देता है, उसी प्रकार मुनि गांव में विचरण करे।
मधुकर - वृत्ति की अभिव्यक्ति महाभारत में भी इसी प्रकार हुई है—
यथा मधु समादत्ते रक्षन् पुष्पाणि षट्पदः । तद्वदर्थान् मनुष्येभ्य आदद्यादविहिंसया ॥
—महाभारत ३४/१७
जैसे भौंरा फूलों की रक्षा करता हुआ ही उसका मधु ग्रहण करता है, उसी प्रकार राजा भी प्रजाजनों को कष्ट दिए बिना ही कर के रूप में उनसे धन ग्रहण करे ।
दशवैकालिक के द्वितीय अध्ययन की प्रथम गाथा है-
कहं नु कुज्जा सामण्णं जो कामे न निवारए ।
पए पर विसीयंतो संकप्पस्स वसं गओ ॥
वह कैसे श्रामण्य का पालन करेगा जो काम (विषय-राग) का निवारण नहीं करता, जो संकल्प के वशीभूत होकर पग-पग पर विषादग्रस्त होता है।
इसी प्रकार के भाव बौद्ध परम्परा के ग्रन्थ संयुत्तनिकाय के निम्न श्लोक में परिलक्षित होते हैं—
[५८]