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________________ का प्राधान्य है, इसलिए साधना के क्षेत्र में बहुमत और अल्पमत का प्रश्न महत्त्व का नहीं है। वहां महत्त्व है सत्य की अन्वेषणा और उपलब्धि का। उस सत्य की उपलब्धि के साधन हैं—चर्या, गुण और नियम। श्रमण आचार में पराक्रम करे, वह गृहवास का परित्याग करे। सदा एक स्थान पर न रहे और न ऐसे स्थान पर रहे जहां रहने से उसकी साधना में बाधा उपस्थित होती हो। वह एकान्त स्थान जहां स्त्री-पुरुष-नपुंसक-पशु आदि न हों, वहां पर रह कर साधना करे। चर्या का अर्थ मूल व उत्तर गुण रूप चारित्र है और गुण का अर्थ है—चारित्र की रक्षा के लिए भव्य भावनाएं। नियम का अर्थ है—प्रतिमा आदि अभिग्रह, भिक्षु की बारह प्रतिमाएं नियम के अन्तर्गत ही हैं, स्वाध्याय, कायोत्सर्ग आदि भी नियम हैं। जो इनका अच्छी तरह से पालन करता है वह प्रतिबुद्ध-जीवी कहलाता है। वह अनुस्रोतगामी नहीं किन्तु प्रतिस्रोतगामी होता है। अनुस्रोत में मुर्दे बहा करते हैं तो प्रतिस्रोत में जीवित व्यक्ति तैरा करते हैं। साधक इन्द्रिय और मन के विषयों के प्रवाह में नहीं बहता। श्रमण मद्य और मांस का अभोजी होता है। मांस बौद्ध भिक्षु ग्रहण करते थे पर जैन श्रमणों के लिए उसका पूर्ण रूप से निषेध किया गया है। मांस और मदिरा का उपयोग करने वाले को नरकगामी बताया है। साथ ही श्रमणों के लिए दूध-दही आदि विकृतियां प्रतिदिन खाने का निषेध किया गया है। कायोत्सर्ग : एक चिन्तन ___ श्रमण के लिए पुनः-पुनः कायोत्सर्ग करने का विधान है। कायोत्सर्ग में शरीर के प्रति ममत्व का त्याग किया जाता है। साधक एकान्त-शान्त स्थान में शरीर से निस्पृह होकर खम्भे की तरह सीधा खड़ा हो जाता है, शरीर को न अकड़ कर रखता है और न झुका कर ही। दोनों बांहों को घुटनों की ओर लम्बा करके प्रशस्त ध्यान में निमग्न हो जाता है। चाहे उपसर्ग और परीषह आयें, उनको वह शान्त भाव से सहन करता है। साधक उस समय न संसार के बाह्य पदार्थों में रहता है, न शरीर में रहता है, वह सब ओर से सिमट कर आत्मस्वरूप में लीन हो जाता है। कायोत्सर्ग अन्तर्मुख होने की एक पवित्र साधना है। वह उस समय राग-द्वेष से ऊपर उठ कर नि:संग और अनासक्त होकर शरीर की मोह-माया का परित्याग करता है। कायोत्सर्ग का उद्देश्य है शरीर के ममत्व को कम करना। कायोत्सर्ग में साधक यह चिन्तन करता है यह शरीर अन्य है तथा मैं अन्य हूं, मैं अजर-अमर चैतन्य रूप हूं, मैं अविनाशी हूं, यह शरीर क्षणभंगुर है, इस मिट्टी के पिण्ड में आसक्त बनकर मैं कर्त्तव्य से पराङ्मुख क्यों बनूं ? शरीर मेरा वाहन है, मैं इस वाहन पर सवार होकर जीवनयात्रा का लम्बा पथ तय करूं । यदि यह शरीर मुझ पर सवार हो जाएगा तो कितनी अभद्र बात होगी ! इस प्रकार कायोत्सर्ग में शरीर के ममत्वत्याग का अभ्यास किया जाता है। आवश्यकनियुक्ति में आचार्य भद्रबाहु ने कहा है चाहे कोई भक्ति-भाव से चन्दन लगाए, चाहे कोई द्वेषवश बसूले से छीले, चाहे जीवन रहे, चाहे इसी क्षण मृत्यु आ जाए, परन्तु जो साधक देह में आसक्ति नहीं रखता है, सभी स्थितियों में समचेतना रखता है, वस्तुतः उसी का कायोत्सर्ग सिद्ध होता है ।२२० ___ कायोत्सर्ग के द्रव्य और भाव ये दो प्रकार हैं। द्रव्य कायोत्सर्ग का अर्थ है शरीर की चेष्टाओं का निरोध करके एक स्थान पर निश्चल और निस्पंद जिन-मुद्रा में खड़े रहना और भाव कायोत्सर्ग है—आर्त और रौद्र दुानों २२०. वासी-चंदणकप्पो, जो मरणे जीविए य समसण्णो । देहे य अपडिबद्धो, काउस्सग्गो हवइ तस्स ॥ -आवश्यकनियुक्ति गाथा १५४८ [५६]
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
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