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________________ का त्याग कर देना चाहिए और जो इनको त्याग कर कल्याणमार्ग का अनुसरण करता है वह परमगति को प्राप्त करता है । इस प्रकार हम देखते हैं कि वैदिक परम्परा के ग्रन्थों में भी क्रोध, मान आदि आवेगों को आध्यात्मिक विकास में बाधक माना है। यह आवेग सामाजिक सम्बन्धों में भी कटुता उत्पन्न करते हैं । सामाजिक और आध्यात्मिक दृष्टि से इनका परिहार आवश्यक है। जितना-जितना कषायों का आवेग कम होगा उतनी ही साधना में स्थिरता और परिपक्वता आएगी। इसलिए आठवें अध्ययन में कहा गया है— श्रमण को कषाय का निग्रह कर मन का सुप्रणिधान करना चाहिए। इस अध्ययन में इस बात पर बल दिया गया है कि श्रमण इन्द्रिय और मन का अप्रशस्त प्रयोग न करे, वह प्रशस्त-प्रयोग करे। यह शिक्षा ही इस अध्ययन की अन्तरात्मा है। इसीलिए निर्युक्तिकार की दृष्टि से 'आचारप्रणिधि' नाम का भी यही हेतु है ।१८४ 'प्रणिधि' शब्द का प्रयोग कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में अनेक बार किया है। वहां गूढ़ पुरुष - प्रणिधि, रागप्रणिधि, दूत- प्रणिधि आदि प्रणिधि पद वाले कितने ही प्रकरण हैं । अर्थशास्त्र के व्याख्याकार ने प्रणिधि का अर्थ कार्य में लगाना तथा व्यापार किया है। प्रस्तुत आगम में जो प्रणिधि शब्द का प्रयोग हुआ है वह साधक को आचार में प्रवृत्त करना या आचार में संलग्न करना है। इस अध्ययन में कषायविजय, निद्राविजय, अट्टहासविजय के लिए सुन्दर संकेत किए गए हैं। आत्मगवेषी साधकों के लिए संयम और स्वाध्याय में सतत संलग्न रहने की प्रबल प्रेरणा दी गई है। जो संयम और स्वाध्याय में रत रहते हैं वे स्व-पर का रक्षण करने में उसी प्रकार समर्थ होते हैं जैसे आयुधों से सज्जित वीर सैनिक सेना से घिर जाने पर भी अपनी और दूसरों की रक्षा कर लेता है ।१८५ विनय : एक विश्लेषण नौवें अध्ययन का नाम विनयसमाधि है । विनय तप है और तप धर्म है। अतः साधक को विनय धारण करना चाहिए।९८६ विनय का सम्बन्ध हृदय से है। जिसका हृदय कोमल होता है वह गुरुजनों का विनय करता है । अहंकार पत्थर की तरह कठोर होता है, वह टूट सकता है पर झुक नहीं सकता। जिसका हृदय नम्र है, मुलायम है, उसकी वाणी और आचरण सभी में कोमलता की मधुर सुवास होती है । विनय आत्मा का ऐसा गुण है, जिससे आत्मा सरल, शुद्ध और निर्मल बनता है। विनय शब्द का प्रयोग आगम- साहित्य में अनेक स्थलों पर हुआ है। कहीं पर विनय नम्रता के अर्थ में व्यवहृत हुआ है तो कहीं पर आचार और उसकी विविध धाराओं के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। जैन परम्परा में विनय शब्द बहुत ही व्यापक अर्थ को लिए हुए है। श्रमण भगवान् महावीर के समय एक सम्प्रदाय था जो विनयप्रधान था ।१८७ वह बिना किसी भेदभाव के सबका विनय करता था । चाहे श्रमण मिले, चाहे ब्राह्मण मिले, चाहे गृहस्थ मिले, चाहे राजा मिले या रंक मिले, चाहे हाथी मिले या घोड़ा मिले, चाहे कूकर मिले या शूकर मिले, सब का विनय करते रहना ही उसका सिद्धान्त था ।" इस मत के वशिष्ठ, पाराशर, जतुकर्म, वाल्मीकि, १८४. तम्हा उ अप्पसत्थं, पणिहाणं उज्झिऊण समणेणं । पणिहाणंमि पसत्थे, भणिओ 'आयारपणिहि' त्ति ॥ १८५. दशवैकालिक, ८ /६१ १८६. विणओ वि तवो तवो वि धम्मो तम्हा विणओ पउंजियव्वो । १८७. सूत्रकृतांग १/१२/१ १८८. प्रवचनसारोद्धार सटीक, उत्तरार्द्ध, पत्र ३४४ [ ४८ ] - दश नियुक्ति ३०८ - प्रश्नव्याकरण, संवरद्वार ३/५
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
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