SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 52
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ रोमहर्षिणी, सत्यदत्त, व्यास, तेलापुत्र, इन्द्रदत्त आदि बत्तीस आचार्य थे जो विनयवाद का प्रचार करते थे।८९ पर जैनधर्म वैनयिक नहीं है, उसने आचार को प्रधानता दी है। ज्ञाताधर्मकथा में सुदर्शन नामक श्रेष्ठी ने थावच्चापुत्र अणगार से जिज्ञासा प्रस्तुत की आपके धर्म और दर्शन का मूल क्या है ? थावच्चापुत्र अणगार ने चिन्तन की गहराई में डुबकी लगाकर कहा—सुदर्शन ! हमारे धर्म और दर्शन का मूल विनय है और वह विनय अगार और अनगार विनय के रूप में है। अगार और अनगार के जो व्रत और महाव्रत हैं उनको धारण करना ही अगार-अनगार विनय है।९० इस अध्ययन में विनय-समाधि का निरूपण है तो उत्तराध्ययन के प्रथम अध्ययन का नाम विनयश्रुत दिया गया है। ___ यह सहज जिज्ञासा हो सकती है कि विनय को तप क्यों कहा गया है ? सद्गुरुओं के साथ नम्रतापूर्ण व्यवहार करना यह प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य है। फिर ऐसी क्या विशेषता है जो उसे तप की कोटि में परिगणित किया गया है ? उत्तर में निवेदन है कि विनय शब्द जैन साहित्य में तीन अर्थों में व्यवहत हुआ है १. विनय अनुशासन, २. विनय आत्मसंयम सदाचार, ३. विनय-नम्रता सद्व्यवहार। उत्तराध्ययन के प्रथम अध्ययन में जो विनय का विश्लेषण हुआ है वहां विनय अनुशासन के अर्थ में आया है। सद्गुरुओं की आज्ञा का पालन करना, उनकी भावनाओं को लक्ष्य में रखकर कार्य करना, गुरुजन शिष्य के हित के लिए कभी कठोर शब्दों में हित-शिक्षा प्रदान करें, उपालम्भ भी दें तो शिष्य का कर्तव्य है कि वह गुरु की बात को बहुत ही ध्यानपूर्वक सुने और उसका अच्छी तरह से पालन करे। 'फरुसं पि अणुसासणं१९१ अनुशासन चाहे कितना भी तेजतर्रार क्यों न हो, शिष्य सदा यही सोचे गुरुजन मेरे हित के लिए यह आदेश दे रहे हैं, इसलिए मुझे गुरुजनों के हितकारी, लाभकारी आदेश का पालन करना चाहिए,९२ उनके आदेश की अवहेलना करना और अनुशासन पर क्रोध करना, मेरा कर्तव्य नहीं है।१९३ विनय का दूसरा अर्थ आत्मसंयम है। उत्तराध्ययन में 'अप्पा चेव दमेयव्वो' आत्मा का दमन करना चाहिए, जो आत्मा का दमन करता है, वह सर्वत्र सुखी होता है। विवेकी साधक संयम और तप के द्वारा अपने आप पर नियंत्रण करता है। जो आत्मा विनीत होता है, वह आत्मसंयम कर सकता है, वही व्यक्ति गुरुजनों के अनुशासन को भी मान सकता है, क्योंकि उसके मन में गुरुजनों के प्रति अनन्त आस्था होती है। वह प्रतिपल, प्रतिक्षण यही सोचता है कि गुरुजन जो भी मुझे कहते हैं, वह मेरे हित के लिए है, मेरे सुधार के लिए है। कितना गुरुजनों का मुझ पर स्नेह है कि जिसके कारण वे मुझे शिक्षा प्रदान करते हैं। शिष्य गुरुजनों के समक्ष विनीत मुद्रा में बैठता है, गुरुजनों के समक्ष कम बोलता है या मौन रहता है। गुरुजनों का विनय कर उन्हें सदा प्रसन्न रखता है और ज्ञान १८९. (क) तत्त्वार्थराजवार्तिक ८/१, पृष्ठ ५६२ (ख) उत्तराध्ययन बृहद्वृत्ति, पृ. ४४४ १९०. ज्ञातासूत्र ५ १९१. उत्तराध्ययन १/२९ १९२. उत्तराध्ययन १/२७ १९३. उत्तराध्ययन १/९ [४९]
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy