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प्रश्न का समाधान करते हुए आचार्य शय्यम्भव ने लिखा है— शान्ति से क्रोध को, मृदुता से मान को, सरलता से माया को और सन्तोष से लोभ को जीतना चाहिए। १७१ आचार्य कुन्दकुन्द १७२ तथा आचार्य हेमचन्द्र १७३ ने भी शय्यम्भव का ही अनुसरण किया है तथा बौद्ध ग्रन्थ धम्मपद' में भी यही स्वर झंकृत हुआ है कि अक्रोध से क्रोध को, साधुता से असाधुता को जीते और कृपणता को दान से, मिथ्याभाषण को सत्य से पराजित करे। महाभारतकार व्यास ने भी इसी सत्य की अपने शब्दों में पुनरावृत्ति की है। १७५ कषाय वस्तुतः आत्मविकास में अत्यधिक बाधक तत्त्व है । कषाय के नष्ट होने पर ही भव - परम्परा का अन्त होता है । कषायों से मुक्त होना ही सही दृष्टि से मुक्ति है । जैन परम्परा जिस प्रकार कषायवृत्ति त्याज्य मानी गई है उसी प्रकार बौद्ध परम्परा में भी कषायवृत्ति को हेय माना है। तथागत बुद्ध ने साधकों को सम्बोधित करते हुए कहा— क्रोध का परित्याग करो, अभिमान को छोड़ दो, समस्त संयोजनों को तोड़ दो, जो पुरुष नाम तथा रूप में आसक्त नहीं होता अर्थात् उसका लोभ नहीं करता, जो अकिंचन है उस पर क्लेशों का आक्रमण नहीं होता । जो समुत्पन्न होते हुए क्रोध को उसी तरह निग्रह कर लेता है जैसे सारथी अश्व को, वही सच्चा सारथी है। शेष तो मात्र लगाम पकड़ने वाले हैं । १७६ जो क्रोध करता है वह वैरी है तथा जो मायावी है उस व्यक्ति को वृषल (नीच) जानो । १७७ सुत्तनिपात में बुद्ध ने स्पष्ट शब्दों में कहा— जो मानव जाति, धन और गोत्र का अभिमान करता है और अपने बन्धुओं का अपमान करता है वह उसी के पराभव का कारण है।९७८ मायावी मरकर नरक में उत्पन्न होता है और दुर्गति को प्राप्त करता है। १७९ इस प्रकार बौद्धधर्म में कषाय या अशुभ वृत्तियों के परिहार पर बल दिया है। बौद्धदर्शन की भांति कषाय-निरोध का संकेत वैदिकदर्शन में भी प्राप्त है । छान्दोग्योपनिषद् में कषाय शब्द राग-द्वेष के अर्थ में प्रयुक्त है। महाभारत में कषाय शब्द अशुभ मनोवृत्तियों के अर्थ में आया है। वहां पर इस बात पर प्रकाश डाला है कि मानव जीवन के तीन सोपान हैं— ब्रह्मचर्य - आश्रम, गृहस्थ आश्रम और वानप्रस्थ आश्रम । इन तीन आश्रमों में कषाय को पराजित कर फिर संन्यास - आश्रम का अनुसरण करे ।१८१ श्री मद्भगवद्गीता में कषाय के अर्थ में ही आसुरी वृत्ति का उल्लेख है । दम्भ, दर्प, मान, क्रोध आदि आसुरी संपदा है ।१८२ अहंकारी मानव बल, दर्प, काम, क्रोध के अधीन होकर अपने और दूसरों के शरीर में अवस्थित परमात्मा से विद्वेष करने वाले होते हैं । १८३ काम, क्रोध और लोभ ये नरक के द्वार हैं, अत: इन तीनों द्वारों
१७१. दशवैकालिक ८/३९
१७२. नियमसार ११५ १७३. योगशास्त्र ४/२३
१७४ धम्मपद २२३
१७५. महाभारत, उद्योगपर्व ३९/४२
१७६. धम्मपद २२१-२२२ १७७. सुत्तनिपात ६ / १४
१७८. सुत्तनिपात ७/१ १७९. सुत्तनिपात ४०/१३/१
१८०. छान्दोग्य उपनिषद् ७ / २६ / २
१८१. महाभारत, शान्तिपर्व २४४ / ३ १८२. श्रीमद्भगवद्गीता १६/४ १८३. वही १६ / १८
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