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... ५७१. जोर
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दशवैकालिकसूत्र प्रस्तुत ५७०वीं गाथा में चातुर्मास एवं मासकल्प की मर्यादा बताई है। मुनि के लिए वर्ष भर के काल को दो भागों में बांटा गया है- चातुर्मास्यकाल एवं ऋतुबद्धकाल। इसीलिए यहां उसे 'संवच्छर' (संवत्सर) कहा गया है। मुनि चातुर्मास्यकाल में ४ मास और शेष ८ मास के ऋतुबद्धकाल में उत्कृष्ट १-१ मास तक एक स्थान पर रहता है। यहां बतलाया गया है कि जहां उत्कृष्ट काल तक वास किया हो, वहां दूसरी या तीसरी बार वास नहीं करना चाहिए। तीसरी बार का यहां स्पष्ट उल्लेख नहीं है, किन्तु 'चकार' के द्वारा यह अर्थ अध्याहृत होता है। तात्पर्य यह है कि जहां मुनि चातुर्मास करे, वहां दो चातुर्मास अन्यत्र किए बिना चातुर्मास न करे और जहां मुनि एक मास रहे, वहां दो मास अन्यत्र बिताए बिना न रहे।३ (११) सुत्तस्य मग्गेण चरेज्ज० इत्यादि पंक्ति का भावार्थ-यहां तक सूत्रोक्त उत्सर्म और अपवाद को दृष्टि में रख कर साधुवर्ग की विशिष्ट विविक्तचर्या का उल्लेख किया गया है। फिर भी अनेक चर्याओं का यहां उल्लेख नहीं है। उनके विषय में अतिदेश करते हुए शास्त्रकार कहते हैं। शेष चर्याओं के विषय में सूत्र में उत्सर्ग और अपवादरूप अर्थ (चर्या) की जिस प्रकार से आज्ञा हो, उसी प्रकार से सूत्रोक्तमार्ग से चलना चाहिए, स्वच्छन्द-वृत्ति के अनुसार नहीं, क्योंकि सूत्रोक्तमार्ग से चलने वाला साधु आज्ञा का आराधक होता है। सूत्र के भावों को सम्यक् प्रकार से सोच-समझ कर जो साधु-साध्वी चलते हैं, वे अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लेते हैं। इस प्रकार मुख्य विविक्तचर्याओं के सम्बन्ध में यहां तक चर्चा की गई है। एकान्त आत्मविचारणा के रूप में विविक्तचर्या
पुव्वरत्तावरत्तकाले, संपेक्खई+ अप्पगमप्पएणं । किं मे कडं, किं च मे किच्चसेसं ?
किं सक्कणिज्जं न समायरामि ? ॥ १२॥ .५७२. किं मे परो पासइ, किंश्व अप्पा ?
किं वाहं खलियं न विवज्जयामि ? - इच्चेव -सम्म:: अणुपासमायो ,
अणागयं : नो पडिबंध कुप्जा ॥ १३॥ . -. ५७३. जत्थेव पासे कई दुप्पउत्तं ..
कारण वाया , अदु माणसेणं तत्थेवः धीसे. पडिसाहरेज्जा,+ NE.
आइन्नओ* खिप्पमिव खलीणं ॥ १४॥ ५७४. जस्सेरिसा जोग.जिइंदियस्स, -
धिईमओ सप्पुरिसस्स निच्चं । तमाहु लोए पडिबद्धजीवी.:: :
सो जीव संजय-जीविएणं ॥ १५॥ १३. दसवेयालियं (मुनि नथमलजी) पृ. ५३१ १४. दशवै. (आ. आत्मा. म.), पृ. १०५५ पाठान्तर- + संपेहए, संपेहइ, संपिक्खइ । *च I+ पडिसाहरिज्जा । *आइण्णो। जीअइ।