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________________ द्वितीय चूलिका : विविक्तचर्या ५७५: अप्पाः खलु सययं रक्खियब्वो, सव्विंदिएहिं : सुसमाहिएहिं । अरक्खिओ जाइपहर उवेइ, सुरक्खिओ : सव्वदुहाण मुच्चइ ॥ १६॥ मात्ति बैमि ॥ ॥विवित्तचरिया : बिड्या चूलिया समत्ता ॥ [बारसमं विवित्तचरिया णामऽझायणं समत्तं]; दसवेयालियं समत्तं [५७१-५७२] जो साधु रात्रि के प्रथम प्रहर और पिछले (अन्तिम) प्रहर में अपनी आत्मा का अपनी आत्मा द्वारा सम्प्रेक्षण (सम्यक् अन्तर्निरीक्षण) करता हैं कि "मैंने क्या (कौन-सा करने योग्य कृत्य) किया है ? मेरे लिए क्या (कौन-सा) कृत्य शेष रहा है ? वह कौन-सा कार्य है, जो मेरे द्वारा शेक्य है, किन्तु मैं (प्रमादवश) नहीं कर रहा हूँ ? ॥ १२॥ क्या मेरी स्खलना (भूल या प्रमाद) को दूसरा कोई देखता है? अथवा क्या अपनी भूल को मैं स्वयं देखता हूँ? अथवा कौन-सी स्खलना में नहीं त्याग रहा हूँ? इस प्रकार आत्मा का सम्यक् अनुप्रेक्षण (अन्तनिरीक्षण) करता हुआ मुनि अनागत (भविष्यकाल) में (किसी प्रकार का दोषात्मक) प्रतिबन्ध न करे ॥ १३ ॥ ___[५७३] जहां (प्रतिलेखन, प्रतिक्रमण, स्वाध्याय, ध्यान, कायोत्सर्ग आदि जिस क्रिया में) भी तन से, वाणी से अथवा मन से (अपने आपको) दुष्प्रयुक्त (प्रमादपूर्वक-प्रवृत्त) देखे, वहीं (उसी क्रिया में) धीर (साधक स्वयं शीघ्र) सम्भल जाए, जैसे जातिमान् अश्व लगाम खींचते ही शीघ्र संभल जाता है ॥१४॥ [५७४] जिस जितेन्द्रिय, धृतिमान् सत्पुरुष के योग (मन-वचन-काया का योग) सदा इस प्रकार के रहते हैं, उसे लोक में प्रतिबुद्धजीवी कहते हैं। वह प्रतिबुद्धजीवी ही (वास्तव में संयमी जीवनयापन) करता है ॥ १५ ॥ [५७५] समस्त इन्द्रियों को सुसमाहित करके आत्मा की सतत रक्षा करनी चाहिए, क्योंकि अरक्षित आत्मा जातिपथ (जन्म-मरण-परम्परा) को प्राप्त होता है और सुरक्षित आत्मा सब दुःखों से मुक्त हो जाता है ॥ १६॥ र सनएसा म कहता पर काम विवेचन -आत्मानुशासन-चर्या के सूत्र प्रस्तुत पांच गाथाओं (१७९% से ५७५ तक) में आत्मा का सूक्षमता से निरीक्षण करने तथा अपने मन कसून काया को आत्मा के अनुशासन में रखने और आत्मा की सब प्रकार से सदैव सतत रक्षा करने का निर्देश किया गया है ....TETS FREET आत्मनिरीक्षण आत्मार्थी मुनिशान्त चित्त से रात्रि के प्रथम और अन्तिम प्रहरे में अन्तर की गहराई में डूब कर एकान्त में, अकेले में, केवल अपनी आत्मा के साथ वार्तालाप करे- मैं कौन हूँ मैंने इस जीवन में अथवा आज कौन-कौन से शुभकार्य किए हैं ? तप, जप, सेवा, ध्यान आदि कौन-कौन से कार्य करने बाकी हैं ? तथा ऐसे कौनकौन से शुभकार्य हैं, जिनके करने की मुझ में शक्ति तो है, किन्तु मैं प्रमादवश उन्हें क्रियान्वित नहीं कर रहा हूं,? 17.) ASSISTERSEE ICE
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
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