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________________ द्वितीय चूलिका : विविक्तचर्या ३८९ सेवन न करे, क्योंकि दोनों पदार्थ अनेक जीवों की उत्पत्ति और विनाश के कारण हैं तथा इनसे बुद्धि भ्रष्ट होती है। (२) अमच्छरी अमत्सरी—किसी से मत्सर—डाह या ईर्ष्या न करने वाला हो। (३) अभिक्खणं निव्विगई गया बार-बार विकृतिकारक घी, दूध, मिष्टान्न आदि पौष्टिक पदार्थों के सेवन से मादकता, आलस्य, मतिमन्दता आदि की वृद्धि होती है, रसलोलुपता जागती है। (४) अभिक्खणं काउसग्गकारी प्रतिदिन पुनः पुनः कायोत्सर्ग करना चाहिए। कायोत्सर्ग से शरीर के प्रति ममत्व घटता है, देहाध्यास घटाने का अभ्यास होता है, शरीर से सम्बन्धित चिन्ताएं नहीं सतातीं। ध्यान से आत्मिक शक्ति, मनोबल एवं आत्मशुद्धि होती है। (५) सज्झायजोगे पयओहवेज्जा— स्वाध्याय और उसके योगोद्वहन में प्रयत्नशील हो। स्वाध्याय से ज्ञानवृद्धि, आत्मविकास एवं आत्मशुद्धि के लिए चिन्तन-मनन-आलोचन आदि की जागृति होती है। चित्त में स्थिरता, समता और वीतरागता का भाव जागता है। स्वाध्याय के साथ योग अर्थात् योगोद्वहन आचाम्ल आदि का एक विशेष तपोऽनुष्ठान आवश्यक है। इससे बौद्धिक निर्मलता. आत्मशद्धि और चित्त की स्थिरता बढ़ती है, इन्द्रियां दुर्विषयों की ओर प्रायः नहीं दौड़तीं। (६) ण पङिन्नविज्जा इत्यादि गाथा—का निष्कर्ष यह है कि साधु किसी भी खाद्यवस्तु, उपकरण, शय्या, स्थान, देश, नगर, ग्राम आदि में ममता-मूर्छा, आसक्ति या लालसा न रखे, अन्यथा ममत्व भाव से परिग्रहमहाव्रत भंग हो जाएगा। (७) गिहिणो वेयावडियं आदि पंक्ति का रहस्य मुनि को किसी भी गृहस्थ का वैयावृत्य (प्रीतिजनक उपकार—उसका व्यापार आदि कार्य) करना, या उसकी सेवाभक्ति करना तथा अभिवादन, वन्दन, पूजन करना नहीं चाहिए। इससे गृहस्थ के साथ अत्यधिक संसर्ग बढ़ता है। (८) असंकिलिटेहिं समं वसिज्जा : आशय—जो मुनि सब प्रकार से संक्लेशों से रहित हैं, उत्कृष्टचारित्री हैं, उन्हीं के साथ या संसर्ग में रहना चाहिए, जिससे ज्ञानादि गुणों की वृद्धि हो, हानि न हो। (९) निपुण साथी न मिलने पर एकाकी विहार का निर्देश-प्रस्तुत गाथा (५९६) का तात्पर्य यह है कि कदाचित् काल-दोषवश अथवा गुरु या साथी साधु के वियोग के कारण संयमानुष्ठान में कुशल, परलोकसाधन में सहायक, अपने से ज्ञानादि गुणों में अधिक या समान कोई मुनि साथी के रूप में न मिले तो मुनि को अकेले विचरण करना उचित है, किन्तु भूल कर भी शिथिलाचारी, संक्लेशी, प्रपंची या भ्रष्टाचारी साधु के साथ नहीं रहना चाहिए या विचरना चाहिए, क्योंकि शिथिलाचारी के साथ रहने से चारित्रधर्म की हानि, समाज में अप्रतीति, अप्रतिष्ठा, अश्रद्धा उत्पन्न होती है। अयोग्य साधु के साथ रहने से हानि ही हानि है। परन्तु एकाकी विचरण करने वाले मुनि के लिए दो बातें शास्त्रकारों ने अंकित की हैं—(१) कठिन से कठिन संकट-प्रसंग में भी पापकर्मों से दूर रहे, उनका स्पर्श न होने दे तथा (२) काम-भोगों के प्रति जरा भी आसक्ति न रखे। इस गाथा में आपवादिक स्थिति में अकेले विचरण की चर्चा है। जो साधु रसलोलुप, सुविधावादी, निरंकुश या अपनी उग्रप्रकृतिवश स्वच्छन्दाचारी होकर आचार्य के अनुशासन की अवहेलना करके अकेले विचरण करते हैं, उनके लिए शास्त्रकार अकेले विचरण की आज्ञा नहीं दे रहे हैं। एकाकी विचरण को कठिन शर्तों के साथ उसकी अवधि भी अल्प ही है, वह भी तब तक जब तक वैसा निपुण सहायक-साथी न मिले।१२ (१०) चातुर्मास एवं मासकल्प में निवास की चर्या ९. दशवकालिक (आचार्यश्री आत्मारामजी महाराज), पृ. १०४८ १०. वही, पृ.१०५० ११. वही, पृ.१०५१ १२. (क) दशवै. (आ. आत्मारामजी) पृ. १०५३-१०५४ (ख) दशवेयालियं (मुनि नथमलजी), पृ. ५३०
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
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