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दशवैकालिकसूत्र
प्रतिरिक्तता—एकान्तस्थान में निवास, आशय यह है—जहां स्त्री-पुरुष, पशु या नपुंसक रहते हों वहां या भीड़भाड़ वाले स्थान में न रहना। (५) अप्पोवही अल्प उपधि रखना वस्त्रादि धर्मोपकरण कम रखना। अल्प-उपधि से प्रतिलेखन करने में समय कम लगता है, ममत्वभाव भी घटता है और परिग्रहवृद्धि नहीं होती। (६) कलहविवज्जणा : कलहवर्जन कलह से शान्ति भंग होती है, रागद्वेषवृद्धि, कर्मबन्ध तथा लोगों में धर्म के प्रति घृणाभाव होता है। विहारचर्या : भावार्थ विहारचर्या का अर्थ यहां टीका और जिनदासचूर्णि में मासकल्पादि पादविहार की चर्या किया है, किन्तु अगस्त्यचूर्णि के अनुसार विहारचर्या यहां समस्तचर्या साधु की क्रिया मात्र का संग्राहक है। (७) आइण्ण-ओमाणविवज्जणा आकीर्ण-अवमान-विवर्जना—आकीर्ण और अवमान, ये दो प्रकार के भोज हैं। आकीर्ण भोज वह है, जिसमें बहुत भीड़ हो। आकीर्ण भोज में अत्यधिक जनसमूह होने से साधु को धक्कामुक्की होने के कारण हाथ-पैर आदि में चोट लगने की संभावना है। अनेक स्त्री-पुरुषों के यातायात से मार्ग खचाखच भरा होने से स्त्री आदि का संघट्टा हो सकता है। अवमानभोज वह है, जिसमें गणना से अधिक खाने वालों की उपस्थिति होने से भोजन कम पड़ जाए। अवमानभोज में भोजन लेने पर भोजकार को अतिथियों के लिए दुबारा भोजन बनाना पड़ता है, अथवा भोजकार साधु को भोजन देने से इन्कार कर देता है, अथवा स्वपरपक्ष की ओर से अपमान होने की सम्भावना है। अनेक दोषों की संभावना के कारण आकीर्ण और अवमान भोज में जाना साधु के लिए वर्जित है। (८) ओसन्न-दिट्ठाहड-भत्तपाणे उत्सन्न-दृष्टाहृत-भक्तपान उत्सन्न का अर्थ है—प्रायः। दिट्ठाहड का अर्थ है—दृष्टस्थान से लाए हुए आहार-पानी को ग्रहण करना। इसकी मर्यादा यह है कि तीन घरों के अन्तर से लाया हुआ आहार-पानी हो, वह ग्रहण करे, उससे आगे का नहीं। जहां से आहार-पानी दाता द्वारा लाया जाता है, उसे देखने के दो प्रयोजन हैं—(१) गृहस्थ अपनी आवश्यकता की वस्तु तो नहीं दे रहा है ? (२) वह आहार किसी दोष से युक्त तो नहीं है ? (९) संसट्ठकप्पेण-इत्यादि पंक्ति का भावार्थ अचित्त वस्तु से लिप्त हाथ
और भाजन (बर्तन) से आहार लेना संसृष्टकल्प कहलाता है। क्योंकि यदि दाता सचित्त जल से हाथ और बर्तन को धोकर भिक्षा देता है, तो पुराकर्म दोष और यदि वह देने के तुरंत बाद बर्तन या हाथ धोता है तो पश्चात्कर्मदोष लगता है और सचित्त वस्तु से संसृष्ट हाथ और बर्तन से देता है तो जीव की विराधना का दोष लगता है। इसलिए आगे कहा गया है—हाथ और पात्र तज्जातसंसृष्ट हों उसी से आहार-पानी लेने का प्रयत्न करना चाहिए। तज्जात का अर्थ हैदेयवस्तु के समानजातीय वस्तु से लिप्त।'
उत्तरगुणरूप चारित्र की चर्या (१) अमज्जमंसासिणो—अमद्य-मांसाशी साधु मद्य और मांस का
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(क) आइण्णमि अच्चत्थं आइन्नं राजकुल-संखडिमाइ, तत्थ महाजण-विमद्दो पविसमाणस्स हत्थपादादिलूसणभाणभेदाई दोसा । ....ओमाण-विवज्जणं नाम अवमं-ऊणं अवमाणं, ओमो वा मोणा जत्थ संभवइ तं ओमाणं ।
-जिनदासचूर्णि, पृ. ३७१ (ख) अवमानं स्वपक्ष-परपक्षप्राभृत्यजं लोकाबहुमानादि....अवमाने अलाभाधाकर्मादिदोषात् । इदं चोत्सन्नदृष्टाहतं यत्रोपयोग: शुद्ध्यति त्रिगृहान्तरादारात इत्यर्थः ।
–हारि. वृत्ति, पत्र २८ (ग) दशवै. (संतबालजी), पृ. १५९ (घ) तज्जायसंसट्ठमिति जातसद्दो प्रकारवाची, तज्जातं तथाप्रकारं ।
-अ.चू. (ङ) तज्जातेन देयद्रव्याऽविरोधिना यत्संसृष्टं हस्तादि ।
स्था. ५/१ वृत्ति (च) दसवेयालियं (मुनि नथमलजी), पृ. ५२८