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________________ द्वितीय चूलिका : विविक्तचर्या ३८७ करे ॥६॥ [५६६] साधु मद्य और मांस का अभोजी हो, अमत्सरी हो, बार-बार विकृतियों (दूध, दही आदि विगयों) का सेवन न करने वाला हो, बार-बार कायोत्सर्ग करने वाला और स्वाध्याय के लिए (विहित तपरूप) योगोंद्वहन में प्रयत्नशील ही ॥७॥ • [५६७] (साधु मासकल्पादि की समाप्ति पर उस स्थान से विहार करते समय गृहस्थ को ऐसी) प्रतिज्ञा न दिलाए कि यह शयन (संस्तारक-बिछौना या शयनीय पट्टा, चौकी आदि), आसन, शय्या (उपाश्रय या स्थानक आदि वसति), निषद्या (स्वाध्यायभूमि) तथा भक्त-पान (आहार-पानी) आदि (जब मैं लौट कर आऊं, तब मुझे ही देना। अतएव साधु) किसी नाम, नगर, कुल या देश पर; (यहां तक कि) किसी भी स्थान पर ममत्वभाव 1CTER-FREERSE BE pr ... प्रका-[५६ मुनि गृहस्थ का वैयाकृत्य न करे (तथा गृहस्थ का) अभिवादन, वन्दन और पूजन भी न करे। मुनि संक्लेशरहित साधुओं के साथ रहे, जिससे (चारित्रादि गुणों की) हानि न हो ॥९॥ गा५६९] कदाचित् (अपने से) गुणों में अधिक अथवा गुणों में समान निपुण सहायक (साथी) साधु न मिले तो पापकर्मों को वर्जित करता हुआ, कामभोगों में अनासक्त रहकर अकेला ही विहार (विचरण) करे ॥१०॥ ७०] वर्षाकाल में चार मास और अन्य ऋतुओं में एक मास रहने का उत्कृष्ट प्रमाण है। (अतः जहां चातुर्मास वर्षावास किया हो, अथवा मासकल्प किया हो) वहां दूसरे वर्ष (चातुर्मास अथवा दूसरे मासकल्प) नहीं रहना चाहिए। सूत्र का अर्थ जिस प्रकार आज्ञा दें, भिक्षु उसी प्रकार सूत्र के मार्ग से चले ॥११॥ . ASTRIT T ETTENDS । विवेचन आहार-विहार आदि की विवेकयुक्त चर्चा के सूत्र–भिक्षाजीवी, अप्रतिबद्धविहारी, पंचमहाव्रती, अनासक्त एवं निर्ग्रन्थ साधु को आहार, विहार, भिक्षा; निवास, व्यवहार, स्वाध्याय, ध्यान, कायोत्सर्ग आदि से सम्बन्धित जितनी भी चर्याएं हैं, वे पूर्णविवेक से युक्त एवं शास्त्रोक्त मर्यादा-पूर्वक हों, इस दृष्टि से इन सात गाथाओं (५६४ से ५७० तक) में प्रशस्त विहारचर्या का रूप प्रस्तुत किया गया है। प्रशस्त विहारचर्या के विभिन्न सूत्रों की व्याख्या (१) अणिएयवासो : दो रूप, तीन अर्थअनिकेतबास। निकेत का अर्थ घर है। अर्थात्-भिक्षु को किसी गृहस्थ के घर में नहीं रहना चाहिए। इसका फलितार्थ यह है कि उसे स्त्री-पशु-नपुंसक आदि से युक्त गृहस्थ के घर में न रह कर एकान्त, उद्यान, उपाश्रय, स्थानक या शून्यगृह आदि में रहना चाहिए। ब्रह्मचर्यसुगुप्ति की दृष्टि से भी “विविक्तशय्या' आवश्यक है।' १अनिकेतवास का अर्थ गृहत्याग भी है। अनियतवास–बिना किसी रोगादि कारण के सदा एक ही नियतस्थान में नहीं रहना। एक ही स्थान पर अधिक रहने से.ममत्वभाव का उदय होता है। (२) समुयाणचरिया :आशय-भिक्षाचर्या उच्च-नीच-मध्यम सभी कुलों से अनेक घरों से सामुदायिक रूप से करनी चाहिए, क्योंकि एक ही घर से आहार-पानी लेने से औद्देशिक आदि दोष लगने की संभावना है। (३) अन्नाय-उंछं—पूर्वपरिचित पितृपक्ष और पश्चात्परिचित श्वसुरपक्ष आदि से भिक्षा न लेकर अपरिचित कुलों से प्राप्त भिक्षा । (४) पाइरिक्कया ७. दशवै. (आचार्यश्री आत्मारामजी महाराज), पृ. १०४४
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
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