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________________ दसवां अध्ययन : स-भिक्षु ३५५ भोजन पाकर पेट भर लेता है, वह भविष्य के लिए कुछ भी संग्रह, करके नहीं रखता, उसी प्रकार भिक्षु भी भिक्षाटन से जो कुछ निर्दोष आहार मिलता है, उससे क्षुधा - निवृत्ति कर लेता है, भविष्य के लिए संग्रह करके नहीं रखता । साहम्मियाण छंदिय : व्याख्या — साधर्मिकों को इच्छाकारपूर्वक निमंत्रित कर । साधर्मिक का अर्थ-समानधर्मा साधु है। साधु भोजन के लिए उन्हीं को आमंत्रित कर सकता है, जिनका वेष, क्रिया, चर्या एवं नियमोपनियम समान हों। वह विषयभोगी (असमानधर्मा) साधु को या श्रावक को निमंत्रित नहीं कर सकता। जिनदासचूर्णि के अनुसार — 'मुझ पर अनुग्रह करें' ऐसा मान कर साधु अपने साधर्मिक साधुओं को निमंत्रित करे अर्थात् आप अपनी इच्छानुसार इसमें से ग्रहण करें, इस प्रकार अपनी ओर से उन्हें लेने के लिए अनुरोध (मनुहार ) करे। यदि किसी साधर्मी साधु की इच्छा हो तो उसे प्रदान कर स्वयं आहार करना चाहिए। न य वुग्गहियं कहं कहेज्जा — वैग्रहिकी कथा वह है जिस कथा, चर्या या वार्ता से विग्रह ( कलह, युद्ध या विवाद) उत्पन्न हो। कलह या झगड़े को प्रोत्साहन देने वाली बातें नहीं कहनी चाहिए। न य कुप्पे 'कोप न करे', इसका आशय यह है कि कोई विवाद बढ़ाने वाली चर्चा छेड़े अथवा चर्चा करते हुए कोई मतवादी कुतर्क प्रस्तुत करे तो उसे सुन कर मुनि कोप न करे ।११ 'निहुदिए' आदि पदों के अर्थ – निहुइदिए – निभृतेन्द्रिय - निभृत का अर्थ विनीत या निश्चल । जिसकी इन्द्रियां अनुद्धत या अचंचल हैं, वह निभृतेन्द्रिय है । जो इन्द्रियों पर कठोर नियंत्रण से संयम-सीमा से उन्हें बाहर नहीं जाने देता। संजमधुवजोगजुत्ते —– संयमधुवयोगयुक्त — यहां ध्रुव का अर्थ है – अवश्यकरणीय या सदैव। योग का अर्थ है— मन-वचन-काय । अतः इस पंक्ति का अर्थ हुआ— जो संयम में सदैव (सर्वकाल) मन, वचन और काया से संयुक्त रहता है, अर्थात् — स्वीकृत संयम से मन-वचन-काया तीनों में से एक को भी न हटाने वाला । उवसंते— उपशान्त—अनाकुल, अव्याक्षिप्त अथवा काया की चपलता से रहित । अविहेडए : अविहेठक – (१) विग्रह, विकथा आदि प्रसंगों में समर्थ होने पर भी जो ताडना तर्जना (डांट-फटकार) आदि द्वारा दूसरे को तिरस्कृत नहीं करता, (२) उचित कार्य का अनादर न करने वाला अर्थात् — अवसर आने पर स्वयोग्य कार्य करने में आनाकानी न करने वाला, अथवा (३) क्रोध आदि का परिहार करने वाला । १२ ९. १०. (क) परश्वः न निधत्ते, न स्थापयति । — हारि. वृत्ति, पत्र २६६ (ख) परग्गहणेण तइयं-वउत्थमादीण दिवसाण गहणं कयं । न निहे, न निहावाए णाम न परिवासिज्जत्ति वृत्तं भवति । —जिनदासचूर्णि, पृ. ३४२ (क) साधम्मिया - समाणधम्मिया साधुणो । छंदो इच्छा, इच्छाकारेणं जोयणं छंदणंः एवं छंदिय । ११. — अगस्त्यचूर्णि (ख) दसवेयालियं (मुनि नथमलजी), पृ. ४९० (क) न च वैग्रहिकीं कलहप्रतिबद्धां कथां कथयति । — हारि. वृत्ति, पृ. २६६ (ख) जति वि परो कहेज्ज तधावि अम्हं रायाणं देसं वा णिंदसित्ति ण कुप्पेज्जा । वादादौ सयमवि कहेज्जा विग्गहकहं, पुण कुप्पे । -अगस्त्यचूर्णि (ग) दसवेयालियं (मुनि नथमलजी), पृ. ४९० १२. (क) निभृतेन्द्रियः - अनुद्धतेन्द्रियः । ध्रुवं सर्वकालं । उपशान्तः अनाकुल: कायचापलादिरहितः । अविहेठकः -न क्वचिदुचितेऽनादरवान् क्रोधादीनां विश्लेषक इत्यन्ये । — हारि. वृत्ति, पत्र २६६
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
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