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________________ ३५४ दशवकालिकसूत्र योग वाला हो और (५) श्रुत (शास्त्र-ज्ञान) में सदा उपयोगयुक्त रहता हो, वह ध्रुवयोगी है। अगस्त्यचूर्णि के अनुसार (१) जो तीर्थंकर-वचनानुसार मन-वचन-काया से प्रवृत्ति करता हो, (२) प्रतिलेखनादि जो भी अवश्यकरणीय कार्य हों, उन्हें सदैव समय पर उपयोगपूर्वक करने वाला हो, वह ध्रुवयोगी है। कहा भी है___'जिन शासन में तीर्थंकरवचनरूप द्वादशांगी गणिपिटक में जो निश्चल योग-युक्त हो तथा पांच प्रकार के स्वाध्याय में रत हो, वह ध्रुवयोगी है।" "गिहिजोगं' आदि पदों का विशेषार्थ गिहिजोगं गृहस्थयोग अर्थात् —(१) गृहस्थों से ममत्वयुक्त संसर्ग या सम्बन्ध रखना या (२) गृहस्थों का क्रय-विक्रय, पचन-पाचन आदि व्यापार स्वयं करना। सम्मदिट्ठीसम्यग्दृष्टि जिनप्ररूपित जीव, अजीव आदि तत्त्वों (सद्भावों) पर जिसकी सम्यक् श्रद्धा है। अमूढे : अमूढ– (१) मिथ्यादृष्टियों (मिथ्या-विश्वासरत) का वैभवादि देख कर मूढता न लाने वाला, (२) देव, गुरु और धर्म, इस तत्त्वत्रयी में जिसे पक्का विश्वास हो अथवा (३) देवमूढता, गुरुमूढता और शास्त्रमूढता से जो दूर हो। 'अस्थि हु नाणे०' इत्यादि : दो व्याख्याएँ (१) जिनशासन में सम्यक् ज्ञान है, उस ज्ञान का फल तप और संयम है और संयम का भी फल मोक्ष है। ये ज्ञान, तप और संयम जिनप्रवचन में ही सम्पूर्ण हैं, अन्य कुप्रावचनों में नहीं। (२) हेय, ज्ञेय और उपादेय पदार्थों का विज्ञापक ज्ञान है, कर्ममल को शुद्ध करने के लिए जल के समान बाह्याभ्यन्तर भेद वाला तप है और नवीन कर्मों के बन्ध का निरोध करने वाला संयम है, इस प्रकार जो अमूढभाव से मानता है। अर्थात्ज्ञान, तप और संयम के अस्तित्व में दृढ़ आस्था रखता है। मण-वय-काय-सुसंवुडे मन-वचन-काय से सुसंवृत-मन से सुसंवृत—अकुशल मन का निरोध और कुशल मन की उदीरणा करने वाला, वचन से सुसंवृतअप्रशस्त वचन का निरोध और प्रशस्त वचनों की उदीरणा करने या मौन रखने वाला, काय से सुसंवृत शास्त्रोक्त नियमानुसार शयनासन-आदान-निक्षेपादि कायचेष्टाएं करने वाला, शेष अकरणीय क्रियाएं न करने वाला। ___ होही अट्ठो सुए परे वा० : व्याख्या–सुए का अर्थ है श्वः—आगामी कल और परे—परश्वः का अर्थ है—परसों अथवा तीसरा, चौथा आदि दिन। न निहे—बासी नहीं रखता, स्थापित करके नहीं रखता, अर्थात् संचय, नहीं करता। यह आहार कल या परसों या तीन चार दिन के लिए काम आएगा, इस विचार से जो रात बासी नहीं रखता या संचय करके नहीं रखता। जिस प्रकार पक्षी भूख लगने पर इधर-उधर घूम कर अपनी प्रकृति के योग्य ७. जिनदासचूर्णि, पृ. ३४९ (क) गिहिजोगो-जो तेसिं वायारो पयण-पयावणं तं । -अगस्त्यचूर्णि (ख) गृहियोगं-मूर्च्छया गृहस्थसम्बन्धम् । -हारि. वृत्ति, पत्र २६६ (ग) सब्भावं सद्दहणालक्खणा सम्म दिट्ठी जस्स सो सम्मदिट्ठी । परतित्थिविभवादीहिं अमूढे । -अगस्त्यचूर्णि (घ) 'अहवा सम्मद्दिट्ठिणा जो इदाणी अत्थो भण्णइ तंमि अत्थि सया अमूढा दिट्ठी कायव्वा । ....जहा अत्थि हु जोगे नाणे य, तस्स नाणस्स फलं संजमे य, संजमस्स फलं, ताणि य इमंमि चेव जिणवयणे संपुण्णाणि, णो अण्णेसु कुप्पावयणेसुत्ति । ....मणवयणकायजोगे सुट्ठ संवुडेत्ति । तत्थ मणेणं ताव अकुसलमणणिरोधं करेइ, कुसलमणोदीरणं च, वायाएवि पसत्थाणि वायण-परियट्याईणि कुव्वइ, सेसाणि य अकरणिज्जाणि य ण कुव्वइ ।' जिन. चूर्णि, पृ. ३४२ (ङ) अमूढः–अविप्लुतः सन्नेवं मन्यते –अत्स्येव ज्ञानं हेयोपादेयविषयमतीन्द्रियेष्वपि तपश्च बाह्याभ्यन्तरं कर्ममलापनयनजलकल्पं संयमश्च नवकर्मानुपादानरूपः । -हारि. वृत्ति, पत्र २६६
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
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