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________________ ३५६ दशवैकालिकसूत्र सद्भिक्षु : आक्रोशादि परीषह-भय-कष्टसहिष्णु ५३१. जो सहइ उ गाम-कंटए, अक्कोस-पहार-तज्जणाओ य । भय-भेरवसद्द संपहासे, समसुह-दुक्खसहे य जे, स भिक्खू ॥११॥ ५३२. पडिमं पडिवज्जिया मसाणे, नो भायए भय-भेरवाइं दिस्स । विविहगुणतवोरए य निच्चं, न सरीरं चाभिकंखई जे, स भिक्खू ॥ १२॥ ५३३. असई वोसट्ठचत्तदेहे, अकुटे व हए व लूसिए वा । पुढविसमे मुणी हवेज्जा, अनियाणे अकोउहल्ले य जे, स भिक्खू ॥ १३॥ ५३४. अभिभूय काएण परीसहाइ, समुद्धरे जाइपहाओ* अप्पयं । विइत्तु जाइमरणं महब्भयं, तवे+रए सामणिए जे, स भिक्खू ॥ १४॥ [५३१] जो (साधु) इन्द्रियों को कांटे के समान चुभने वाले आक्रोश-वचनों, प्रहारों, तर्जनाओं और (वेताल आदि के) अतीव भयोत्पादक अट्टहासों को सहन करता है तथा सुख-दुःख को समभावपूर्वक सहन कर लेता है, वही सुभिक्षु है ॥ ११॥ [५३२] जो (साधक) श्मशान में प्रतिमा अंगीकार करके (वहां के) अतिभयोत्पादक दृश्यों (या भूतपिशाचादि के रूपों) को देख कर भयभीत नहीं होता तथा जो विविध गुणों (मूल-उत्तर-गुणों) एवं तप में रत रहता है, जो शरीर की भी (ममत्वपूर्वक) आकांक्षा नहीं करता, वही (मुमुक्षु) भिक्षु होता है ॥ १२॥ [५३३] जो मुनि बार-बार देह का व्युत्सर्ग और (ममत्व) त्याग करता है (अथवा शरीर को संस्कारित एवं आभूषणादि से विभूषित नहीं करता), जो किसी के द्वारा आक्रोश किये जाने, (डंडे आदि से) पीटे जाने अथवा (शस्त्रादि से) क्षत-विक्षत किये जाने पर भी पृथ्वी के समान (सर्वंसह सब कुछ सहने वाला) क्षमाशील रहता है, जो (किसी प्रकार का) निदान (नियाण) नहीं करता तथा (नृत्य, खेल-तमाशे आदि) कौतुक नहीं करता (या उनमें १२. (ख) दशवै. (आचार्य श्री आत्मारामजी महाराज), पृ. ९८२ (ग) संजमे सव्वकालं (ध्रुवं) तिविहेण जोगेण जुत्तो भवेज्जा ।अविहेडए नाम जे परं अक्कोसतेप्पणादीहिं न विधेडयनि ___ एवं स अविहेडए । -जिनदासचूति पाठान्तर-*जाइवहाओ। + भवे ।
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
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