________________
धर्मप्रज्ञप्ति, चारित्रधर्म, चरण और धर्म ये छहों षड्जीवनिकायं के पर्यायवाची हैं।१२६ नियुक्तिकार भद्रबाहु के अभिमतानुसार यह अध्ययन आत्मप्रवादपूर्व से उद्धृत है।१२० एषणा : विश्लेषण
___ पांचवें अध्ययन का नाम पिण्डैषणा है। पिण्ड शब्द 'पिंडी संघाते' धातु से निर्मित है। चाहे सजातीय पदार्थ हो या विजातीय, उस ठोस पदार्थ का एक स्थान पर इकट्ठा हो जाना पिण्ड कहलाता है। पिण्ड शब्द तरल और ठोस दोनों के लिए व्यवहृत हुआ है। आचारांग में पानी की एषणा के लिए पिण्डैषणा शब्द का प्रयोग हुआ है ।२८ संक्षेप में यदि कहा जाय तो अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य, इन सभी की एषणा के लिए पिण्डैषणा शब्द का व्यवहार हुआ है।१२९ दोषरहित शुद्ध व प्रासुक आहार आदि की एषणा करने का नाम पिण्डैषणा है। पिण्डैषणा का विवेचन आचारचूला में विस्तार से हुआ है। उसी का संक्षेप में निरूपण इस अध्ययन में है। स्थानांगसूत्र में पिण्डैषणा के सात प्रकार बताए हैं—१. संसृष्टा- देय वस्तु से लिप्त हाथ या कड़छी आदि से देने पर भिक्षा ग्रहण करना, २. असंसृष्टा— देय वस्तु से अलिप्त हाथ या कड़छी आदि से भिक्षा देने पर ग्रहण करना, ३. उद्धृता— अपने प्रयोजन के लिए रांधने के पात्र से दूसरे पात्र में निकाला हुआ आहार ग्रहण करना, ४. अल्पलेपा– अल्पलेप वाली यानी चना, बादाम, पिस्ते, द्राक्षा आदि रूखी वस्तुएं लेना, ५. अवगृहीता- खाने के लिए थाली में परोसा हुआ आहार लेना, ६. प्रगृहीता- परोसने के लिए कडछी या चम्मच आदि से निकाला हुआ आहार लेना या खाने वाले व्यक्ति के द्वारा अपने हाथ से कवल उठाया गया हो पर खाया न गया हो, उसे ग्रहण करना, ७. उज्झितधर्मा— जो भोजन अमनोज्ञ होने के कारण परित्याग करने योग्य है, उसे लेना।१३० भिक्षा : ग्रहणविधि
प्रस्तुत अध्ययन में बताया है कि श्रमण आहार के लिए जाए तो गृहस्थ के घर में प्रवेश करके शुद्ध आहार की गवेषणा करे। वह यह जानने का प्रयास करे कि यह आहार शुद्ध और निर्दोष है या नहीं ?१३१ इस आहार को लेने से पश्चात्कर्म आदि दोष तो नहीं लगेंगे? यदि आहार अतिथि आदि के लिए बनाया गया हो तो उसे लेने पर गृहस्थ को दोबारा तैयार करना पड़ेगा या गृहस्थ को ऐसा अनुभव होगा कि मेहमान के लिए भोजन बनाया और मुनि बीच में ही आ टपके। उसके मन में नफरत की भावना हो सकती है, अतः वह आहार भी ग्रहण नहीं करना चाहिए। किसी गर्भवती महिला के लिए बनाया गया हो वह खा रही हो और उसको अन्तराय लगे वह आहार भी श्रमण ग्रहण न करे।३२ गरीब और भिखारियों के लिए तैयार किया हुआ आहार भिक्षु के लिए अकल्पनीय है।९२२ दो
–दशवैकालिकं नियुक्ति ४/२३३
–दशवैकालिक नि. १/१६
१२६. जीवाजीवाभिगमो, आयारो चेव धम्मपन्नत्ती ।
तत्तो चरित्तधम्मो, चरणे धम्मे अ एगट्ठा ॥ १२७. आयप्पवायपुव्वा निव्वढा होइ धम्मपन्नत्ती ॥ १२८. आचारांग १२९. पिण्डनियुक्ति, गाथा ६ १३०. (क) आयारचूला १/१४१-१४७ (ख) स्थानांग ७/५४५ वृत्ति, पत्र ३८६
(ग) प्रवचनसारोद्धार गाथा ७३९-७४२ १३१. दशवैकालिक ५/१/२७, ५/१/५६ १३२. वही ५/१/२५
१३३. वही ५/१/३९ [४०]