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रखना चाहिए। यदि वह आवश्यकता से अधिक संग्रह करता है तो दोषी है। बौद्ध भिक्षु तीन चीवर, भिक्षापात्र, पानी छानने के लिए छन्ने से युक्त पात्र आदि सीमित वस्तुएं रख सकता है।१२५ यहां तक कि भिक्षु के पास जो सामग्री है उसका अधिकारी संघ है। वह उन वस्तुओं का उपयोग कर सकता है पर उनका स्वामी नहीं है। शेष जो चार शील हैं—मद्यपान, विकाल भोजन, नृत्यगीत, उच्चशय्यावर्जन आदि का महाव्रत के रूप में उल्लेख नहीं है पर वे श्रमणों के लिए वर्ण्य हैं।
दस भिक्षुशील और महाव्रतों में समन्वय की दृष्टि से देखा जाय तो बहुत कुछ समानता है, तथापि जैन श्रमणों की आचारसंहिता में और बौद्धपरम्परा की आचारसंहिता में अन्तर है। बौद्धपरम्परा में भी दस भिक्षुशीलों के लिए मन-वचन-काया तथा कृत, कारित, अनुमोदित की नव कोटियों का विधान है पर वहां औद्देशिक हिंसा से बचने का विधान नहीं है। जैन श्रमण के लिए यह विधान है कि यदि कोई गृहस्थ साधु के निमित्त हिंसा करता है और यदि श्रमण को यह ज्ञात हो जाय तो वह आहार आदि ग्रहण नहीं करता। जैन श्रमण के निमित्त भिक्षा तैयार की हुई हो या आमंत्रण दिया गया हो तो वह किसी भी प्रकार का आमंत्रण स्वीकार नहीं करता। बुद्ध, अपने लिए प्राणीवध कर जो मांस तैयार किया होता उसे निषिद्ध मानते थे पर सामान्य भोजन के सम्बन्ध में, चाहे वह भोजन औद्देशिक हो, वे स्वीकार करते थे। वे भोजन आदि के लिए दिया गया आमंत्रण भी स्वीकार करते थे। इसका मूल कारण है अग्नि, पानी आदि में बौद्धपरम्परा ने जैनपरम्परा की तरह जीव नहीं माने हैं। इसलिए सामान्य भोजन में औद्देशिक दृष्टि से होने वाली हिंसा की ओर उनका ध्यान ही नहीं गया। बौद्धपरम्परा में दस शीलों का विधान होने पर भी उन शीलों के पालन में बौद्ध भिक्षु और भिक्षुणियां उतनी सजग नहीं रहीं जितनी जैनपरम्परा के श्रमण और श्रमणियां सजग रहीं। आज भी जैन श्रमण-श्रमणियों के द्वारा महाव्रतों का पालन जागरूकता के साथ किया जाता है जबकि बौद्ध
और वैदिक परम्परा उनके प्रति बहुत ही उपेक्षाशील हो गई है। नियमों के पालन की शिथिलता ने ही तथागत बुद्ध के बाद बौद्ध भिक्षु संघ में विकृतियां पैदा कर दी।
महाव्रतों के वर्णन के पश्चात् प्रस्तुत अध्ययन में विवेक-युक्त प्रवृत्ति पर बल दिया है। जिस कार्य में विवेक का आलोक जगमगा रहा है वह कार्य कर्मबन्धन का कारण नहीं और जिस कार्य में विवेक का अभाव है, उस कार्य से कर्मबन्धन होता है। जैसे प्राचीन युग में योद्धागण रणक्षेत्र में जब जाते थे तब शरीर पर कवच धारण कर लेते थे। कवच धारण करने से शरीर पर तीक्ष्ण बाणों का कोई असर नहीं होता, कवच से टकराकर बाण नीचे गिर जाते, वैसे ही विवेक के कवच को धारण कर साधक जीवन के क्षेत्र में प्रवृत्ति करता है। उस पर कर्मबन्धन के बाण नहीं लगते। विवेकी साधक सभी जीवों के प्रति समभाव रखता है, उसमें 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' की भव्य अंगड़ाइयां लेती हैं। इसलिए वह किसी भी प्राणी को किसी भी प्रकार से पीड़ा नहीं पहुंचाता। इस अध्ययन में इस बात पर भी बल दिया गया है कि पहले ज्ञान है उसके पश्चात् चारित्र है। ज्ञान के अभाव में चारित्र सम्यक् नहीं होता। पहले जीवों का ज्ञान होना चाहिए, जिसे षड्जीवनिकाय का परिज्ञान है, वही जीवों के प्रति.दया रख सकेगा। जिसे यह परिज्ञान ही नहीं है—जीव क्या है, अजीव क्या है, वह जीवों की रक्षा किस प्रकार कर सकेगा? इसीलिए मुक्ति का आरोहक्रम जानने के लिए इस अध्ययन में बहुत ही उपयोगी सामग्री दी गई है। जीवाजीवाभिगम, आचार, १२५. बुद्धिज्म इट्स कनेक्शन विद ब्राह्मणिज्म एण्ड हिन्दूज्म, पृ. ८१-८२
-मोनियर विलियम्स चौखम्बा, वाराणसी १९६४ ई. [३९]