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साझीदारों का आहार हो और दोनों की पूर्ण सहमति न हो तो वह आहार भी भिक्षु ग्रहण न करे।९३४ इस तरह भिक्षु प्राप्त आहार की आगम के अनुसार एषणा करे। वह भिक्षा न मिलने पर निराश नहीं होता। वह यह नहीं सोचता कि यह कैसा गांव है, जहां भिक्षा भी उपलब्ध नहीं हो रही है। प्रत्युत वह सोचता है कि अच्छा हुआ, आज मुझे तपस्य का सुनहरा अवसर अनायास प्राप्त हो गया। भगवान् महावीर ने कहा है कि श्रमण को ऐसी भिक्षा लेनी चाहिए जे नवकोटि परिशुद्ध हो अर्थात् पूर्ण रूप से अहिंसक हो। भिक्षु भोजन के लिए न स्वयं जीव-हिंसा करे और न करवा तथा न हिंसा करते हुए का अनुमोदन करे। न वह स्वयं अन्न पकाए, न पकवाए और न पकाते हुए का अनुमोदन को तथा न स्वयं मोल ले, न लिवाए और न लेने वाले का अनुमोदन करे।१३५ . श्रमण को जो कुछ भी प्राप्त होता है, वह भिक्षा से ही प्राप्त होता है। इसीलिए कहा है "सव्वं से जाइयं हो णत्थि किंचि अजाइयं।"१३६ भिक्षु को सभी कुछ मांगने से मिलता है, उसके पास ऐसी कोई वस्तु नहीं होती जे अयाचित हो। याचना परीषह है। क्योंकि दूसरों के सामने हाथ पसारना सरल नहीं है, अहिंसा के पालक श्रमण कं वैसा करना पड़ता है किन्तु उसकी भिक्षा पूर्ण निर्दोष होती है। वह भिक्षा के दोषों को टालता है। आगम में भिक्षा ठे निम्न दोष बताये हैं उद्गम और उत्पादना के सोलह-सोलह और एषणा के दस, ये सभी मिलाकर बयालीस दो होते हैं। पांच दोष परिभोगैषणा के हैं। जो दोष गृहस्थ के द्वारा लगते हैं, वे दोष उद्गम दोष कहलाते हैं, ये दोष आहा की उत्पत्ति सम्बन्धी है। साधु के द्वारा लगने वाले दोष उत्पादना के दोष कहलाते हैं। आहार की याचना करते सम ये दोष लगते हैं। साधु और गृहस्थ दोनों के द्वारा जो दोष लगते हैं, वे एषणा के दोष कहलाते हैं। ये दोष विधिपूर्वक आहार न लेने और विधिपूर्वक आहार न देने तथा शुद्धाशुद्ध की छानबीन न करने से उत्पन्न होते हैं। भोजन कर समय भोजन की सराहना और निन्दा आदि करने से जो दोष पैदा होते हैं वे परिभोगैषणा दोष कहलाते हैं आगमसाहित्य में ये सैंतालीस दोष यत्र-तत्र वर्णित हैं, जैसे स्थानांग के नौवें स्थान में आधाकर्म, औद्देशिक मिश्रजात, अध्यवतरक, पूतिकर्म, कृतकृत्य, प्रामित्य, आच्छेद्य, अनिसृष्ट और अभ्याहत ये दोष बताए हैं। निशीथसूत्र में धातृपिण्ड, दूतीपिण्ड, निमित्तपिण्ड, आजीवपिण्ड, वनीपकपिण्ड, चिकित्सापिण्ड, कोपपिण्ड मानपिण्ड, मायापिण्ड, लोभपिण्ड, विद्यापिण्ड, मंत्रपिण्ड, चूर्णपिण्ड, योगपिण्ड और पूर्व-पश्चात्-संस्तव ये बतला हैं ।१३८ आचारचूला में परिवर्तन का उल्लेख है।३९ भगवती में अंगार, धूम, संयोजना, प्राभृतिका और प्रमाणातिरे दोष मिलते हैं।१४० प्रश्नव्याकरण में मूल कर्म का उल्लेख है। दशवैकालिक में उद्भिन्न, मालापहृत, अध्यवत शङ्कित, म्रक्षित, निक्षिप्त, पिहित, संहत्र, दायक, उन्मिश्र, अपरिणत, लिप्त और छर्दित ये दोष आए हैं। उत्तराध्यय में कारणातिक्रान्त दोष का उल्लेख है।४२
-स्थानांग ९
१३४. वही ५/१/४७ १३५. णवकोडि परिसुद्धेभिक्खे पण्णत्ते......। १३६. उत्तराध्ययन २/२८ १३७. स्थानांग ९/६२ १३८. निशीथ, उद्देशक १२ १३९. आचारचूला १/२१ १४०. भगवती ७/१ १४१. दशवैकालिक, अध्ययन ५ १४२. उत्तराध्ययन २६/३३
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