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________________ ३४६ दशवैकालिकसूत्र . भावसंधए : भावसन्धक भाव का अर्थ है मोक्ष, उसका सन्धक अर्थात्मोक्ष को आत्मा के निकट करने वाला अथवा दूरस्थ मोक्ष (भाव) को अपने साथ सम्बद्ध करने वाला। चतुर्विध-समाधि-फल-निरूपण ५१९. अभिगम चउरो समाहिओ, सुविसुद्धो सुसमाहियप्पओ । विउल-हिय+सुहावहं पुणो, कुव्वइ सो पयखेममप्पणो ॥ १३॥ ५२०. जाई-मरणाओ मुच्चई, इत्थंथं च चएइ सव्वसो । सिद्धे वा भवइ सासए, देवे वा अप्परए x महिड्डिए ॥१४॥ –त्ति बेमि ॥ .. ॥विणयसमाहीए चउत्थो उद्देसो समत्तो ॥ ॥ नवमं अज्झयणं : विणयसमाही समत्तं ॥ - [५१९] परम-विशुद्धि (निर्मलचित्त) और (संयम में) अपने को भलीभांति सुसमाहित रखने वाला जो साधु है, वह चारों समाधियों को जान कर अपने लिए विपुल हितकर, सुखावह एवं कल्याण (क्षेम-)कर मोक्षपद (स्थान) को प्राप्त कर लेता है ॥ १३॥ [५२०] (पूर्वोक्त गुणसम्पन्न साधु) जन्म-मरण से मुक्त हो जाता है, नरक आदि सब पर्यायों (अवस्थाओं) को सर्वथा त्याग देता है। (ऐसा साधक) या तो शाश्वत (अजर-अमर) सिद्ध (मुक्त) हो जाता है, अथवा (यदि कुछ कर्म शेष रह जाएं तो वह अल्पकर्मवाला) महर्द्धिक देव होता है ॥ १४॥ विवेचन–चतुर्विध विनयसमाधि की फलश्रुति—प्रस्तुत दो गाथाओं (५१९-५२०) में विनयसमाधि के अनन्तर और परम्पर फल का निरूपण किया गया है। समाधि की फल-प्राप्ति के योग्य जो सुविशुद्ध हो, सुसमाहितात्मा हो तथा चारों समाधियों का सुविज्ञ हो, वही चतुर्विध समाधि के फल को पाने के योग्य है। ९. (क) .....सुत्तत्थेहिं पडिपुण्णो, आयया अच्वत्थं (अत्यन्तं) । -जिनदासचूर्णि, पृ. ३२९ (ख) पडिपुण्णं आयतं आगामिकालं सव्व-आगामिणं कालं पडिपुण्णायतं । -अगस्त्यचूर्णि (ग) दान्त-इन्द्रिय-नोइन्द्रिय-दमाभ्याम् । भाव-सन्धक:-भावो मोक्षस्तत्सन्धक आत्मनो मोक्षासनकारी। -हारि. चूर्णि, पृ. २५८ (घ) भावो-मोक्खो तं दूरत्थमप्पणा सह संबंधए । -जिनदासचूर्णि, पृ. ३२९ पाठान्तर-+ हिअं। * हवइ । x महड्ढिए ।
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
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