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नवम अध्ययन : विनयसमाधि
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महिढेज्जा १, नो परलोगट्ठयाए आयारमहिढेज्जा, नो कित्ति-वण्ण-सह-सिलोगट्ठयाए आयारमहिढेजा ३, नऽन्नत्थ आरहंतेहिं हेऊहिं आयारमहिढेजा चउत्थं पयं भवइ ४ ॥ ११॥ ___५१८. भवइ य एत्थ सिलोगो
जिणवयणरए अतिंतिणे पडिपुण्णाययमाययट्ठिए ।
आयार-समाहि-संवुडे भवइ य दंते भावसंधए ४ ॥ १२॥ [५१७] आचारसमाधि चार प्रकार की है, यथा—(१) इहलोक के लिए आचार का पालन नहीं करना चाहिए, (२) परलोक के निमित्त आचार का पालन नहीं करना चाहिए, (३) कीर्ति, वर्ण, शब्द और श्लोक के लिए भी आचार का पालन नहीं करना चाहिए, (४) आहेतहेतुओं के सिवाय अन्य किसी भी हेतु (उद्देश्य) को लेकर आचार का पालन नहीं करना चाहिए, यह चतुर्थ पद है ॥ ११॥
[५१८] यहां आचारसमाधि के विषय में एक श्लोक है
'जो जिनवचन में रत होता है, जो क्रोध से नहीं भन्नाता, जो (सूत्रार्थ-ज्ञान से) परिपूर्ण है और जो अतिशय मोक्षार्थी है, वह मन और इन्द्रियों का दमन करने वाला (दान्त) मुनि आचारसमाधि द्वारा संवृत्त होकर (आस्रवनिरोध करके अपनी आत्मा को) मोक्ष के अत्यन्त निकट करने वाला होता है' ॥ १२॥
विवेचन आचारसमाधि के सूत्र–प्रस्तुत दो सूत्रों (५१७-५१८) में आचारसमाधि को प्राप्त करने के लिए विभिन्न भौतिक प्रयोजनवश आचार-पालन का निषेध करते हुए एकमात्र आहेत-हेतुओं (आर्हत्-वीतराग-पद-प्राप्ति के उद्देश्य) से आचार-पालन का विधान किया गया है।
आचार : दो स्वरूप (१) मोक्षप्राप्ति में हेतुभूत ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचाररूप पंचाचार, (२) सम्यक्चारित्र मूलगुण-उत्तरगुणमय आचार।'
. आरहंतेहिं हेउहिं—(१) अर्हन्तों ने मोक्षसाधना के लिए अनास्रवत्व.(संवर) और निर्जरा आदि जिन गुणों का उपदेश दिया है या आचरण किया है, उन हेतुओं उद्देश्यों से अथवा (२) अर्हत्प्रणीत शास्त्रों में जिन आचारों द्वारा जीव का आस्रवरहित होना बताया है, उन आस्रवनिरोधादि हेतुओं से अथवा (३) अर्हत्पद की प्राप्ति के उद्देश्यों से।
'पडिपुण्णाययं' आदि पदों के विशेषार्थ : परिपूर्णायत : दो अर्थ (१) सूत्रार्थों से अत्यन्त आयतप्रतिपूर्ण, अथवा (२) जिसका आयत (आगामीकाल—भविष्य) प्रतिपूर्ण है। दंते —दान्त, इन्द्रिय और नो-इन्द्रिय (मन) का दमन करने वाला। ७. (क) 'पंचविधस्स णाणाइ-आयारस्स ।'
—जिनदासचूर्णि, पृ. ३१८ (ख) 'आचारं मूलगुणोत्तरगुणमयं....।'
-हारि. वृत्ति, पत्र २५८ ८. (क) 'जे अरहंतेहिं अणासवत्त-कम्मणिज्जरणादयो गुणा भणिता आयिण्णा वा, ते आरहंतिया हेतवो कारणाणि ।'
-अगस्त्यचूर्णि (ख) आर्हतैः–अर्हत्-सम्बन्धिभिर्हेतुभिरनाश्रवत्वादिभिः ।
-हारि. वृत्ति, पत्र २५८ (ग) दशवै. पत्राकार (आचार्यश्री आत्मारामजी महाराज), पृ. ९५१