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________________ ३४४ दशवकालिकसूत्र (४) (कर्म) निर्जरा के अतिरिक्त अन्य किसी भी उद्देश्य से तप नहीं करना चाहिए, यह चतुर्थ पद है ॥९॥ [५१६] सदैव विविध गुणों वाले तप में (जो साधक) रत रहता है, (जो इहलौकिक, पारलौकिक, किसी भी भौतिक-पौद्गलिक प्रतिफल की) आशा नहीं रखता, (जो केवल) कर्मनिर्जरार्थी होता है, वह तप के द्वारा पूर्वकृत कर्मों का क्षय कर डालता है और सदैव तपःसमाधि से युक्त रहता है ॥ १०॥ विवेचन तपःसमाधि संबंधी सूत्र प्रस्तुत दो सूत्रों (५१५-५१६) में तपःसमाधि को प्राप्त करने के लिए भौतिक प्रयोजनवश तपश्चरण का निषेध करते हुए एकान्त कर्मक्षय के उद्देश्य से तपश्चरण का विधान किया गया ... तपश्चरण के लिए निषिद्ध उद्देश्य इहलोगट्ठयाए परलोगट्ठयाए तपस्या का उद्देश्य इहलौकिक या पारलौकिक नहीं होना चाहिए। साधक को ऐहिक या पारलौकिक सुख-समृद्धि, भोगोपभोग या किसी सांसारिक स्वार्थसिद्धि की आशा से तप नहीं करना चाहिए। यथा—इस तप से मुझे तेजोलेश्या तथा आम!षधि आदि लब्धि या भौतिकसिद्धि, वचनसिद्धि प्राप्त हो जायेगी, अथवा आगामी जन्म में मुझे देवलोक के दिव्य सुख, देवांगनायें अथवा सांसारिक ऋद्धि प्राप्त हो जाएगी। कित्ति-वण्ण-सह-सिलोगट्ठयाए–तपस्या का उद्देश्य कीर्ति आदि भी नहीं होना चाहिए। कीर्ति दूसरों के द्वारा गुणकीर्तन, अथवा सर्वदिग्व्यापी यशोवाद, वर्ण लोकव्यापी या एकदिग्व्यापी यशोवाद, शब्द–लोकप्रसिद्धि अथवा अर्द्धदिग्व्यापी यश, श्लोक ख्याति अथवा उसी स्थान पर होने वाला यश अथवा प्रशंसा। तात्पर्य यह है कि पद, प्रतिष्ठा, पदोन्नति, कीर्ति, प्रसिद्धि एवं प्रशंसा, स्तुति, प्रशस्ति आदि की दृष्टि से साधक को तपश्चर्या नहीं करनी चाहिए। कर्मक्षय करके आत्मशुद्धि की दृष्टि से ही बारह प्रकार की तपश्चर्या करनी चाहिए। जो लोग किसी सांसारिक आशा-आकांक्षा से प्रेरित होकर तप करते हैं. उनकी वे लौकिक-भौतिक कामनाएं कदाचित् पूर्ण हो जाएं किन्तु उन्हें कर्मों से सर्वथा मुक्तिरूप निर्वाणपद की प्राप्ति नहीं होती। उनकी दशा प्रायः ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती के समान होती है, जिसने तपोबल के साथ फलाकांक्षा को जोड़ कर भौतिक सुखसमृद्धि एवं भोगसामग्री तो बहुत प्राप्त की, किन्तु धर्म का बोध तथा धर्माचरण न हो सकने से अन्त में, नरक का मेहमान बनना पड़ा। अतः भगवान् महावीर ने कहा—निज्जरवाए तवमहिढेजा—अर्थात् कर्मनिर्जरा के लिए ही तप करना चाहिए। 'अन्नत्थ' आदि पदों के विशेषार्थ –अन्नत्थ अन्यत्र—छोड़ कर या अतिरिक्त। निरासए—पौद्गलिक प्रतिफल की आशा-आकांक्षा से रहित। आचारसमाधि के चार प्रकार __५१७. चउव्विहा खलु आयारसमाही भवइ । तं जहा—नो इहलोगट्ठयाए आयार५. 'परेहि गुणसंसद्दणं कित्ती, लोकव्यापी जसो वण्णो, लोके विदितया सद्दे, परेहिं पूर (य) णं सिलोगो ।' –अगस्त्यचूर्णि 'सर्वदिग्व्यापी साधुवादः कीर्तिः, एकदिग्व्यापी वर्णः, अर्द्धदिग्व्यापी शब्दः, तत्स्थान एव श्लाघा । निराशो—निष्प्रत्याश इहलोकादिषु ।' -हारि. वृत्ति, पत्र २५७ ६. अन्नत्थसहो परिवजणे वट्टइ । 'निग्गता आसा अप्पसत्था जस्स सो निरासए ।' -जिनदासचूर्णि, पृ. ३२८
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
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