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________________ ३०४ दशवकालिकसूत्र ४४७. पोग्गलाण परिणामं तेसिं णच्चा जहा तहा । विणीयतण्हो* विहरे सीईभूएण अप्पणा ॥ ५९॥ [४३९] (मुनि) दूसरों के लिए बने हुए, उच्चारभूमि (मल-मूत्र विसर्जन की भूमि) से युक्त तथा स्त्री और पशु (उपलक्षण से नपुंसक के संसर्ग) से रहित स्थान (उपाश्रय), शय्या और आसन (आदि) का सेवन करे ॥५१॥ [४४०] यदि उपाश्रय (स्थानक या निवासस्थान) विविक्त (एकान्त—अन्य साधुओं से रहित) हो तो (वहां अकेला मुनि) केवल स्त्रियों के बीच (धर्म-) कथा (व्याख्यान) न कहे, (तथा मुनि) गृहस्थों के साथ संस्तव (अतिपरिचय) न करे, (अपितु) साधुओं के साथ ही परिचय करे ॥५२॥ [४४१] जिस प्रकार मुर्गे के बच्चे को बिल्ली से सदैव भय रहता है, इसी प्रकार ब्रह्मचारी को स्त्री के शरीर से भय होता है ॥५३॥ [४४२] चित्रभित्ति (स्त्रियों के चित्रों से चित्रित या युक्त दीवार) को अथवा (वस्त्राभूषणों से) विभूषित (सुसज्जित) नारी को टकटकी लगा कर न देखे। कदाचित् सहसा उस पर दृष्टि पड़ जाए तो तुरंत उसी तरह वापस हटा ले, जिस तरह (मध्याह्नकालिक) सूर्य पर पड़ी हुई दृष्टि हटा ली जाती है ॥५४॥ [४४३] जिसके हाथ-पैर कटे हुए हों, जो कान और नाक से विकल हो, वैसी सौ वर्ष की (पूर्णवृद्धा) नारी (के संसर्ग) का भी ब्रह्मचारी परित्याग कर दे ॥ ५५॥ [४४४] आत्मगवेषी पुरुष के लिए विभूषा, स्त्रीसंसर्ग और स्निग्ध (प्रणीत) रसयुक्त (सरस) भोजन तालपुट विष के समान है ॥५६॥ [४४५] स्त्रियों के (शृंगाररसप्रसिद्ध) अंग, प्रत्यंग, संस्थान, चारु-भाषण (मधुर बोली) और कटाक्ष (मनोहरप्रेक्षण) के प्रति (साधु) ध्यान न दे (गौर से न देखे), (क्योंकि ये सब) कामराग को बढ़ाने वाले (ब्रह्मचर्यविघातक) हैं ॥ ५७॥ [४४६] (ब्रह्मचारी) शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श, इन पुद्गलों के परिणमन को अनित्य जान कर मनोज्ञ विषयों में रागभाव स्थापित न करे ॥५८॥ [४४७] उन (इन्द्रियों के विषयभूत) पुद्गलों के परिणमन को जैसा है; वैसा जान कर अपनी प्रशान्त (शीतल हुई) आत्मा से तृष्णारहित होकर विचरण करे ॥ ५९॥ विवेचन ब्रह्मचर्य की गुप्तियों के सन्दर्भ में प्रस्तुत ९ गाथाओं (४३९ से ४४७ तक) में ब्रह्मचर्यव्रत की रक्षा के लिए ब्रह्मचर्यव्रत की नौ बाड़ों के सन्दर्भ में कतिपय स्वर्णसूत्र दिये गए हैं। ब्रह्मचर्यगुप्ति के लिए दस स्वर्णसूत्र—(१) परकृत उच्चारभूमियुक्त, स्त्री-पशु-नपुंसक रहित स्थान, शयन और आसन का सेवन करे। (२) विविक्त स्थान में स्थित अकेला साधु केवल स्त्रियों के बीच धर्मकथा न करे।(३) गृहस्थों से परिचय न करके साधुओं से परिचय करे। (४) मुर्गे के बच्चे को बिल्ली से भय होता है, वैसे ही साधु को स्त्रीशरीर से खतरा है। (५) दीवार पर चित्रित या विभूषित नारी को टकटकी लगा कर न देखे, कदाचित् दृष्टि पड़ जाए तो तुरन्त वहां से हटा ले। (६) हाथ-पैर कटी हुई विकलांग सौ वर्ष की वृद्धा के संसर्ग से भी दूर रहे। (७) पाठान्तर-* विणीय-तिण्हो ।
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
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