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________________ अष्टम अध्ययन : आचार-प्रणिधि • ३०५ विभूषा, स्त्रीसंसर्ग और स्निग्ध सरसभोजन तालपुटविष के समान है। (८) स्त्रियों के अंगोपांग, मधुर भाषण, कटाक्ष आदि की ओर ध्यान न दे, विकारी दृष्टि से न देखे, क्योंकि ये कामरागवर्द्धक हैं। (९) मनोज्ञ इन्द्रियविषयों के प्रति रागभाव न रखे। (१०) पुद्गलों के परिणमनरूप विषयों को यथावत् जान कर उनके प्रति अनासक्त एवं उपशान्त होकर विचरण करे।६२ 'अन्नट्ठ पगडं' आदि शब्दों के विशेषार्थ अन्नटुं पगडं अन्यार्थ प्रकृत-निर्ग्रन्थ श्रमणों के अतिरिक्त अन्य के लिए निर्मित। 'अन्य' शब्द से सूचित होता है कि वह चाहे गृहस्थ के लिए बना हो या अन्य तीर्थकों के लिए, साधु उसमें निवास कर सकता है। लयनं का अर्थ घर या निवासगृह है। इत्थीपसुविवज्जियं : स्त्रीपशुविवर्जितः तात्पर्य है जहां स्त्री, पशु और नपुंसक से संसक्त बार-बार आवागमन होता हो या रात्रिनिवास हो अथवा जहां ये दीखते हों, वहां साधु को रहना वर्जित है। नारीणं न लवे कहं—(१) स्त्रियों को कथा न कहे अथवा (२) स्त्रियों की कथा न कहे। गिहिसंथवं न कुज्जा का तात्पर्य यह है कि गृहस्थ के अतिसंसर्ग के कारण आसक्ति तथा आचारशैथिल्य आदि दोषों की सम्भावना है। इत्थीविग्गहओ भयं : अभिप्राय यहां स्त्री से भय है', ऐसा न कह कर स्त्रीविग्रह (नारीशरीर) से भय है, इसका फलितार्थ यह है कि स्त्रीसंसर्ग, स्त्रीपरिचय, स्त्री के साथ निवास अथवा विकारी दृष्टि से उसके हावभाव, कटाक्ष, अंगोपांग, चित्रित-विभूषित स्त्री आदि का प्रेक्षण साधु के लिए वर्जित है। यहां तक कि मृतक स्त्रीशरीर भी भयकारी है। हत्थपायपडिच्छिन्नं आदि गाथा का फलितार्थ यहां अपि' शब्द सम्भावनार्थ है, अतः यह सम्भावना की जा सकती है कि जब हाथ-पैर कटी हुई विकलांग शतवर्षीया वृद्धा के संसर्ग से दूर रहने को कहा गया है, तब वह स्वस्थ एवं सर्वांगपूर्ण तरुण नारी से दूर रहे, इसमें कहना ही क्या है ?६३ ६२. दसवेयालियसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त), पृ. ६०-६१ ६३. (क) 'अन्यार्थ प्रकृतं'–न साधुनिमित्तं निर्वर्तितम् । -हारे. वृत्ति, पत्र २३६ (ख) अन्नट्ठगहणेण अन्नउत्थिया गहिया, अन्नस्स अट्ठाए नाम अन्ननिमित्तं पगडं-पकप्पियं भण्णइ ।। -जिनदासचूर्णि, पृ. २९० ...विवज्जियं नाम जत्थ तेसिं आलोयमादीणि णत्थि तं विवज्जियं भण्णइ, तत्थ. आत-पर-समुत्था दोसा भवंतित्ति काउं ण ठाइयव्वं । तीए विवित्ताए सेज्जाए नारीणं णो कहं-कहेज्जा । किं कारणं ? आत-पर-समुत्था दोसा भवंतित्ति काउं । -वही, चूर्णि, पृ. २९० (घ) तत्थ जतिच्छोवगताण वि नारीणं सिंगारातिगं विसेसेण ण कधे कहं । को पुण निबंधो, जं विवित्तलयणत्थितेणावि कहंचि उपगताण नारीण कहा ण कथनीया ? भण्णति । वत्स! न णु चरित्तवतो महाभयमिदं इत्थी-णाम कहं । -अगस्त्य चूर्णि, पृ. १९८ (ङ) बितियं-नारीजणस्स मज्झे न कहेयव्वा कहा विचित्ता । -प्रश्न. संवरद्वा.४ (च) नो स्त्रीणां कथाः कथयिता भवतीति । -समवा. वृत्ति, पत्र १५ (छ) स्त्रीणां केवलानामिति गम्यते, कथां धर्मदेशनादि-लक्षणवाक्-प्रतिबन्धरूपां । यदि वा 'कर्णाटी सुरतोपचारकुशला', इत्यादि प्रागुक्तां वा जात्यादिचातुर्यरूपां कथां कथयिता.....। –ठा. ९/३ वृत्ति
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
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