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________________ दशवैकालिकसूत्र का निर्देश किया गया है। पृष्ठभाग में अर्थात् पीठ पीछे या गुरु की पीठ से सट कर बैठने से गुरु के दर्शन नहीं होते, उनकी कृपापूर्ण दृष्टि शिष्य पर नहीं पड़ने पाती। उनके इंगित और आकार को नहीं जाना जा सकता। इसलिए पीछे बैठने का निषेध किया गया है। गुरु के उरु से अपना उरु सटा कर बैठना भी अविनय - आशांतना और असभ्यता प्रदर्शन है । सारांश यह है कि इस गाथा में गुरुजनों की पर्युपासना करते समय इस ढंग से नहीं बैठना चाहिए, जिससे उनकी अविनय-आशातना हो, असभ्यता प्रदर्शित हो । ६ स्व-पर- अहितकर भाषा - निषेध ३०० ४३४. अपुच्छिओ न भासेज्जा भासमाणस्स अंतरा । पिट्ठिमंसं न खाएज्जा, मायामोसं विवज्जए ॥ ४६॥ ४३५. अप्पत्तियं जेण सिया, आसु कुप्पेज्ज वा परो । सव्वसो तं न भासेज्जा, भासं अहियगामिणिं ॥ ४७ ॥ ४३६. दिट्टं मियं असंदिद्धं पडिपुण्णं वियं जियं । अयं परमणुव्विग्गं भासं निसिर अत्तवं ॥ ४८ ॥ ४३७. आयारपण्णत्तिधरं दिट्टिवायमहिज्जगं । वइ विक्खलियं णच्चा न तं उवहसे मुणी ॥ ४९ ॥ ४३८. नक्खत्तं सुमिणं जोगं निमित्तं मंत भेसजं । गिहिणो तं न आइक्खे भूयाहिगरणं पयं ॥ ५० ॥ [४३४] (विनीत साधु गुरुजनों के) बिना पूछे न बोले, (वे) बात कर रहे हों तो बीच में न बोले। पृष्ठमांस (चुगली) न खाए और मायामृषा (कपटसहित असत्य) का वर्जन करे ॥ ४६॥ [४३५] जिससे (जिस भाषा के बोलने से) अप्रीति (या अप्रतीति) उत्पन्न हो अथवा दूसरा (सुनने वाला व्यक्ति) शीघ्र ही कुपित होता हो, ऐसी अहित करने वाली भाषा सर्वथा न बोले ॥ ४७ ॥ [४३६] आत्मवान् (आत्मार्थी साधु या साध्वी) दृष्ट (देखी हुई), परिमित, असंदिग्ध, परिपूर्ण, व्यक्त (स्पृष्ट या प्रकट), परिचित, अजल्पित (वाचालतारहित) और अनुद्विग्न ( भयरहित) भाषा बोले ॥ ४८ ॥ [४३७] आचारांग (आचार) और व्याख्याप्रज्ञप्ति ( भगवती) सूत्र के धारक एवं दृष्टिवाद के अध्येता साधु (कदाचित् ) वचन से स्खलित हो जाएं तो मुनि उनका उपहास न करे ॥ ४९ ॥ [४३८] (आत्मार्थी साधु) नक्षत्र, स्वप्न (फल), वशीकरणादि योग, निमित्त, मन्त्र (तन्त्र, यन्त्र), भेषज आदि अयोग्य बातें गृहस्थों को न कहे, क्योंकि ये प्राणियों के अधिकरण- (हिंसा आदि अनिष्टकर) स्थान हैं ॥ ५० ॥ ५६. (क) “समुप्पेहपेरिया सद्दपोग्गला कण्णबिलमणुपविसंतीति कण्णसमसेढी पक्खो, ततो न चिट्ठे गुरूणमंतिए तथा अणेगग्गता भवति ।" अ. चू., पृ. १९६ (ख) पुरओ नाम अग्गओ, तत्थवि अविणओ वंदमाणाणं च वग्घाओ, एवमादि दोसा भवतीत्ति काऊण पुरओ गुरूण नवि चिज्जति । —जिनदासचूर्णि, पृ. २८८
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
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