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________________ अष्टम अध्ययन : आचार-प्रणिधि गुरु की पर्युपसाना करने की विधि ४३२. हत्थं पायं च कायं च पणिहाय जिइंदिए । ____ अल्लीणगुत्तो निसिए सगासे गुरुणो मुणी ॥ ४४॥ ४३३. न पक्खओ न पुरओ, नेव किच्चाण पिट्ठओ । न य ऊरुं समासेज्जा, चितुजा गुरुणंतिए ॥ ४५॥ [४३२] जितेन्द्रिय मुनि (अपने) हाथ, पैर और शरीर को संयमित करके आलीन (न अतिदूर और न अतिनिकट) और गुप्त (मन और वाणी से संयत) होकर गुरु के समीप बैठे ॥४४॥ [४३३] आचार्य आदि के न तो पार्श्वभाग (बराबर) में, न आगे और न ही पृष्ठभाग में (पीछे) बैठे तथा गुरु के समीप (उनके ऊरु से अपना) ऊरु सटा कर (भी) न बैठे ॥ ४५ ॥ विवेचन गुरुजनों के समीप बैठने की विधि प्रस्तुत दो गाथाओं (४३२-४३३) में गुरुजनों की पर्युपासना करते समय उनके समीप बैठने की विधि का प्रतिपादन किया है। पूर्वगाथा में बहुश्रुत पूज्यवरों की पर्युपासना करने का निर्देश था, इन दो गाथाओं में पर्युपासना की विधि बताई गई है। ___ 'पणिहाय' आदि पदों का विशेषार्थ —पणिहाय–संयमित होकर। इसके दो विशेषार्थ मिलते हैं—(१) गुरु के समीप बैठते समय अपने हाथ, पैर आदि शरीर के अवयवों को संकोच कर पूर्ण सभ्यता से बैठना, (२) हाथों को न नचाना, पैरों को न फैलाना आदि एवं शरीर को बार-बार न मोड़ना या कुचेष्टा न करना। अल्लीणगुत्तोआलीनगुप्त—दो विशेषार्थ (१) आलीन-ईषल्लीन—उपयोगयुक्त हो कर। (२) तात्पर्य है—गुरु के न अतिनिकट और. न अतिदूर बैठने वाला, तथा गुप्त का अर्थ होता है मन से गुरु के वचन में उपयोगयुक्त और वचन से प्रयोजनवश बोलने वाला। किच्चाण–गुरुओं या आचार्यों—बहुश्रुत पूज्यवरों के। ऊरु समासेज्जा : दो विशेषार्थ (१) जांघ पर जांघ चढ़ा कर, (२) गुरु के ऊरु से अपने ऊरु (घुटने के ऊपर का भाग—साथल) का स्पर्श कर । उत्तराध्ययन सूत्र के 'न जुंजे उरुणा उरु' के अर्थ से यह अर्थ अधिक मेल खाता है। बराबर में, आगे या पीछे बैठने का निषेध क्यों?—यह पंक्ति भी गुरु की उपासना करते समय उनकी अविनय-आशातना न हो, असभ्यता प्रकट न हो, इस दृष्टि से दी गई है। गुरु के पार्श्वभाग में अर्थात् बराबर मेंकानों की समश्रेणि में बैठने का निषेध इसलिए किया गया है कि वहां बैठने पर शिष्य का शब्द सीधा गुरु के कर्णकुहरों में आता है। उससे गुरु की एकाग्रता भंग होती है। गुरु के आगे अर्थात् गुरु के सम्मुख एकदम निकट बैठने से अविनय भी होता है, और गुरु को वन्दना करने वालों को व्याघात होता है। इस दृष्टि से गुरु के आगे न बैठने ५५. (क) पणिहाय णाम हत्थेहिं हत्थनट्टगादीणि अकरं पाएहिं पसारणादीणि अकुव्वंतो, कारण सासणदृगादीणि अकुव्वंतो । ___-जिनदासचूर्णि, पृ. २८८ (ख) अल्लीणो नाम ईसिलीणो अल्लीणो, णातिदूरत्थो ण वा अच्चासणो । ....वायाए कज्जमेत्तं भासंतो। -जिनदासचूर्णि, पृ. २८८ (ग) मणसा गुरुवयणे उवयुत्तो । -अ.चू., पृ. १९६
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
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