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अष्टम अध्ययन : आचार-प्रणिधि
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विवेचन—भाषा में द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव एवं पात्र का विवेक प्रस्तुत पांच गाथाओं (४३४ से ४३८ तक) में द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव एवं पात्र की दृष्टि से साधु के लिए न बोलने योग्य भाषा का निषेध तथा बोलने योग्य भाषा का विधान किया गया है।
भाषा के विषय में पात्र का विवेक यद्यपि साधक जो भाषा बोलता है, वह निरवद्य ही बोलता है, तथापि गाथा ४३४ में बोलने का जो निषेध किया गया है वह काल और मुख्यतया पात्र की दृष्टि से है। गुरुजन या कोई श्रावक आदि साधु से कुछ पूछे नहीं और कोई प्रयोजन भी न हो, उस समय निष्प्रयोजन बोलना निषिद्ध है, प्रयोजनवश बोलने का निषेध नहीं। साथ ही जब गुरुजन आदि किसी से बात कर रहे हों, उस समय बीच में ही उनकी बात काट कर बोलना उचित नहीं। उस समय पात्र और परिस्थिति दोनों देखें बिना ही तपाक से कह बैठना—आपने यह कहा था, यह नहीं, यह अविवेक है। पृष्ठमांस—पैशुन्य या चुगली को कहते हैं। पैशुन्यसूचक शब्द भले ही निरवद्य हों, किन्तु निन्दा और चुगली से द्वेष, ईर्ष्या, असूया, घृणा आदि दुर्गुण बढ़ते हैं, पापकर्म का बन्ध होता है, वैर बढ़ता है
और मायामृषा तो द्रव्य, क्षेत्र आदि सभी दृष्टियों से हानिकर होने से त्याज्य है ही। क्योंकि इसमें असत्य बोलने के साथ-साथ पूर्वयोजित माया का प्रयोग होता है। अपनी असत्यता को छिपाने के लिए अपने कपटयुक्त भावों का उस पर चिन्तनपूर्वक आवरण डाल कर ऐसे कहा जाता है, ताकि सुनने वाला उसकी बात पूर्ण सच मान ले।
गाथा संख्या ४३५ में 'सव्वसो' कह कर सर्व द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और पात्र सभी दृष्टि से ऐसी स्वपरअहितकारिणी भाषा का प्रयोग निषिद्ध बताया है, जो अप्रीतिकर हो, जिससे श्रोता का क्रोध भड़कता हो।
__गाथा संख्या ४३७ में शास्त्रज्ञ साधु के मुंह से निकलने वाले वचनों में व्याकरण की दृष्टि से कदाचित् कोई त्रुटि या स्खलना रह जाए तो उनका उपहास करना भी प्राज्ञ साधु के लिए उचित नहीं, क्योंकि छद्मस्थ मनुष्य भूल न करने की पूरी-पूरी सावधानी रखता हुआ भी कभी भूल कर बैठता है। सर्वज्ञ बन जाने पर ही भूल' सर्वथा मिट सकती है। उपहास करना भी भाषा दोष है, क्योंकि ऐसा करने से पापकर्म का बन्ध तो होता ही है, महापुरुषों की अविनयआशातना भी होती है, उनके हृदय को आघात पहुंचता है। उपहासात्मक वचन कदाचित् सत्य भी हो, तो भी परपीड़ाकारक होने से साधु के लिए वर्जित है।
निमित्त, नक्षत्रादि काल सम्बन्धित हैं, योग, भैषज मन्त्रादि द्रव्य से तथा शेष भावों से सम्बन्धित है। कदाचित् किसी साधु को निमित्त-नक्षत्रादि का ज्ञान भी हो, तो भी घटी, पल की गणना ठीक से न होने से, दृष्टिविपर्यासवश या किसी स्वार्थवश, छद्मस्थ होने के कारण कोई फलादेश विपरीत कह दिया गया अथवा कहने से विपरीत, उलटा परिणाम आ जाए तो साधुवर्ग के प्रति उसकी श्रद्धा-भक्ति उठ जाएगी। अन्य अनर्थ होने की भी सम्भावना है। इस
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। अपुच्छिओ निक्कारणे ण भासेज्जा ।भासमाणस्स अंतरा ण कुज्जा, जहा—जं एयं ते भणितं, एयं न । 'जं परंमुहस्स
अवबोलिज्जइ, तं तस्स पिट्ठिमंसभक्खणं भवइ । मायाए सह मोसं—मायामोसं।न मायामन्तरेण मोसं भासइ, कहं?
जं पुव्विं भासं कुडिलीकरेइ पच्छा भासइ । अहवा जं मायासहियं मोसं ।' -जिनदासचूर्णि, पृ. २८८ (ख) पृष्ठिमांसं-परोक्षदोषकीर्तनरूपम् । मायाप्रधानां मृषावाचम् ।
—हारि. वृत्ति, पत्र २३६ (ग) दशवै. (आचार्य श्री आत्मारामजी महाराज), पृ.८०२ (क) 'सव्वसो नाम सव्वकालं सव्वावत्थासु ।'
-जिनदासचूर्णि, पृ. २८९ (ख) दशवै. (आचार्य श्री आत्मारामजी महाराज), पृ.८०६-८०७ (ग) दशवै. (संतबालजी), पृ. ११४