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________________ दशवैकालिकसूत्र कुम्पोव्व अल्लीन-पलीणगुत्तो : व्याख्या—इस पंक्ति का अर्थ स्पष्ट है। भावार्थ यह है कच्छप की तरह कायचेष्टाओं का निरोध करे । अगस्त्यचूर्णि के अनुसार —— गुप्त शब्द का अलीन और प्रलीन दोनों के साथ सम्बन्ध होने से, अर्थ हुआ — कूर्म की तरह साधु आलीनगुप्त और प्रलीनगुप्त रहे । अर्थात् —–— कूर्मवत् कायचेष्टा का निरोध करे (आलीनगुप्त रहे) और कारण उपस्थित होने पर यतनापूर्वक शारीरिक प्रवृत्ति करे ( प्रालीनगुप्त रहे ) । जिनदासचूर्णि के अनुसार — आलीन का अर्थ है—थोड़ा लीन और प्रलीन का अर्थ – विशेष लीन । अर्थात् जिस प्रकार कूर्म अपने गुप्त (संकोच र सुरक्षित) रखता है और आवश्यकता पड़ने पर धीरे से उन्हें पसारता है, उसी प्रकार श्रमण भी आलीन - प्रलीनगुप्त रहे । प्रमादरहित होकर ज्ञानाचार में संलग्न रहने की प्रेरणा २९६ ४२९. निहं च न बहु मन्नेज्जा, सप्पहासं विवज्जए । मिहो कहाहिं न रमे, सज्झायम्मि रओ सया ॥ ४१ ॥ ४३०. जोगं च समणधम्मम्मि जुंजे अणलसो धुवं । जुत्तो य समणधम्मम्मि अट्ठ लहइ अणुत्तरं ॥ ४२॥ ४३१. इहलोग-पारत्तहियं जेणं गच्छइ सोग्गई । बहुसुयं पज्जुवासेज्जा, पुच्छेज्जऽत्थविणिच्छयं ॥ ४३॥ [ ४२९] साधु निद्रा को बहुमान न दे। अत्यन्त हास्य को भी वर्जित करे, पारस्परिक विकथाओं में रमण न करे, (किन्तु) सदा स्वाध्याय में रत रहे ॥ ४१ ॥ [४३०] साधु आलस्यरहित होकर श्रमणधर्म में योगों (मन-वचन-काया के व्यापार) को सदैव (यथोचितरूप से) नियुक्त (संलग्न) करे, क्योंकि श्रमणधर्म में संलग्न (जुटा हुआ ) साधु अनुत्तर (सर्वोत्तम ) अर्थ (पुरुषार्थमोक्ष) को प्राप्त करता है ॥ ४२ ॥ [४३१] जिस (सम्यग्ज्ञान) के द्वारा इहलोक और परलोक में हित होता है (मृत्यु के पश्चात् ) सुगति प्राप्त करता है। (उस सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति के लिए) वह बहुश्रुत (मुनि) की पर्युपासना करे और (शास्त्रीय पाठ के) अर्थ के विनिश्चय के लिए पृच्छा करे ॥ ४३ ॥ विवेचन – स्वाध्याय, श्रमणधर्म और सम्यग्ज्ञान में अहर्निश रत रहने की प्रेरणा —–— प्रस्तुत तीन गाथाओं (४२९ से ४३१ तक) में साधक को निद्रा, हास्य, आलस्य, विकथा आदि प्रमाद से दूर रह कर अहर्निश स्वाध्याय, श्रमणधर्म के पालन एवं सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति के लिए यथोचित पुरुषार्थरत रहने की प्रेरण दी गई है। स्वाध्याय आदि में रत रहने के लिए प्रमादत्याग आवश्यक साधु को अपना समय एवं शक्ति को सार्थक करने के लिए सदैव स्वाध्यायरत या श्रमणधर्मरत रहना चाहिए। इसके लिए उसे प्रमाद के इन तीन अंगों से सर्वथा दूर रहना चाहिए— अत्यधिक निद्रा से, सामूहिक परस्पर हास्य से और स्त्री आदि की विकथा से । ४५ ४४. (क) अ. चू., पृ. १९५ (ख) जिनदासचूर्णि, पृ. २८७ ४५. दशवैकालिक (आचार्य श्री आत्मारामजी महाराज), पृ. ७९४
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
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