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अष्टम अध्ययन : आचार-प्रणिधि दीक्षाज्येष्ठ एवं ज्ञानवृद्ध रानिकों या गुरुजनों के प्रति मन-वचन-काय से विनय-भक्ति करनी चाहिए।
ध्रुवशीलता : व्याख्या–धुवसीलयं० इस पंक्ति का शब्दशः अर्थ होता है साधु सतत ध्रुवशीलता को न त्यागे। किन्तु वृत्तिकार और चूर्णिकार ने ध्रुवशीलता का अर्थ 'अष्टादशसहस्रशीलांग-रथ' किया है। इसके लिए जैनवाङ्मय में प्रसिद्ध एक गाथा है
जे णो करंति मणसा, णिजिय-आहारसन्ना सोइंदिए ।
पुढविकायारंभं खंतिजुत्ते ते मुणी वंदे ॥ इसमें तीन करण, तीन योग, चार संज्ञा, पांच इन्द्रिय, पृथ्वीकायादि ५ स्थावर, ३ विकलेन्द्रिय और १ पंचेन्द्रिय, इन नौ प्रकार के जीवों का तथा अजीव का आरम्भ तथा दशविध श्रमणधर्म (क्षांति आदि) का संकेत है। क्षान्ति आदि १० श्रमणधर्म ध्रुवशील हैं। उनका दशविध जीव आदि के साथ क्रमशः संयोग एवं गुणाकार करने से १८००० भेद होते हैं। उसका रेखाचित्र इस प्रकार है
गणना-विधि इस प्रकार के श्रमणधर्म को दशविध जीव के साथ गुणा करने से १०० भेद हुए, इन १०० भेदों को श्रोत्रोन्द्रिय आदि प्रत्येक इन्द्रिय के साथ गुणा करने पर १००४५ -५०० भेद हुए। इन ५०० को चार संज्ञाओं के साथ गुणा करने से २००० भेद हुए, इनको मन, वचन और काया से गुणा करने पर ६००० भेद हुए। इन्हें कृत, कारित और अनुमोदन से गुणा करने पर १८००० भेद शीलांगरथ के हुए। साधु इस शीलांगरथ पर सतत आरूढ़ रहे। कितना भी संकट, भय या प्रलोभन आए, इसे न छोड़े। जे णो करंति | जे णो कारयंति | जे णो समुण
जाणंति ६००० ६०००
६००० मणसा वयसा
कायसा २००० २०००
२००० णिज्जिय णिज्जिय णिज्जिय णिज्जिय आहारसंज्ञा भयसंज्ञा मैथुनसंज्ञा परिग्रहसंज्ञा ५०० ५००
५०० श्रोत्रेन्द्रिय चक्षुरिन्द्रिय घ्राणेन्द्रिय रसनेन्द्रिय , स्पर्शेन्द्रिय १००
१०० | वायु | वनस्पति | द्वीन्द्रिय | त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय पंचेन्द्रिय अजीवारंभ | १० १० १० । १० । १०
१० । १० । १० क्षान्ति | मुक्ति | आर्जव | मार्दव | लाघव | सत्य | संयम | तप | ब्रह्मचर्य आकिंचन्य
(निर्लोभता)
५००
१००
१००
१००
पृथ्वी
१०
४२. रातिणिया-पुव्वदिक्खिता आयरियोवज्झायादिसु सव्वसाधुसु वा अप्पणतो पढमपव्वतियेसु । –अगस्त्यचूर्णि, पृ. १९५ ४३. धुवसीलयं णाम अट्ठारससीलंगसहस्साणि ।
-जिन.चू., पृ. २८७, हारि. वृत्ति पृ. २३५