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________________ २९४ दशवैकालिक होकर पुत्र मृदुस्वभाव एवं मानवतापरायण पिता से रुष्ट हो जाता है, सम्बन्ध तोड़ लेता है, क्रोधान्ध होकर दुर्वचन बोलता है, यह प्रीति का नाश है। को धन का भाग नहीं मिलता है तो उद्धत होकर पिता के सामने अविनयपूर्वक बोलता है, गालीगलौज करता है, उनको कुछ नहीं समझता, भाग लेने को कटिबद्ध हो जाता है, यह विनय का नाश है और कपटपूर्वक येन-केन-प्रकारेण धन ले लेता है, पूछने पर छिपाता है, छलकपट से विश्वास उठ जाता है, इस प्रकार मित्रभाव नष्ट हो जाता है। यह लोभ की सर्वगुणनाशक वृत्ति है । ३९ कसिणा कसाया : व्याख्या 'कसिणा' शब्द के संस्कृत में दो रूप होते हैं— कृत्स्न (सम्पूर्ण) और कृष्ण (काला) । यद्यपि कृष्ण का प्रधान अर्थ काला रंग है, किन्तु मन के दुर्विचारों से ये चारों कषाय आत्मा को मलीन करने वाले हैं। इसलिए कृष्ण का अर्थ संक्लिष्ट किया गया है। दुष्ट विचार आत्मा को अन्धकार में ले जाते हैं, भावतिमिरवश आत्मा संक्लेश पाता है। कषाय : व्याख्या——–कषाय जैनदर्शन का पारिभाषिक शब्द है। इसके अनेक अर्थ हैं। प्राचीन व्याख्या इस प्रकार है—–कष अर्थात् संसार — जन्म-मरण का चक्र । उसकी आय अर्थात् लाभ जिससे हो, वह कषाय है । कषायवश आत्मा अनेक बार जन्म-मरण करता है, संसार में परिभ्रमण करता है। इसलिए कहा है— 'सिंचंति मूलाई पुणब्भवस्स', अर्थात् कषाय पुनः पुनः जन्म-मरणरूप संसारवृक्ष की जड़ों को सींचते रहते हैं। कषाय के क्रोध आदि ४ प्रकार के गाढ रंग हैं, जिनसे आत्मा रंजित होता है, कषायों के गाढ रंग के लेप से आत्मा कर्मरज से लिप्तश्लिष्ट हो जाता है। अर्थात् — इनके लेप से आत्मा पर कर्मपरमाणु चिपक जाते हैं। क्रोधादि कषाय के रंगरस से भीगे हुए आत्मा पर कर्म - परमाणु चिपकते हैं, दीर्घकाल तक रहते हैं। यह कषाय शब्द का दार्शनिक विश्लेषण है ।" रत्नााधिकों के प्रति विनय और तप-संयम में पराक्रम की प्रेरणा ४२८. राइणि विणयं पउंजे, धुवसीलयं सययं न हाक्एज्जा । कुम्मोव्व अल्लीण - पलीणगुत्तो, परक्कमेज्जा तवसंजमम्मि ॥ ४० ॥ [४२८] (साधु) रत्नाधिकों (दीक्षापर्याय में ज्येष्ठ साधुओं) के प्रति विनय का प्रयोग करे। ध्रुवशीलता का कदापि त्याग न करे। कछुए की तरह आलीनगुप्त और प्रलीनगुप्त होकर तप-संयम में पराक्रम करे ॥ ४० ॥ विवेचन — विनय, शील, तप और संयम में पुरुषार्थ - प्रस्तुत गाथा में साधु को संयमादि में पराक्रम करने का निर्देश किया गया है। रानिकों के प्रति विनय का प्रयोग — शास्त्रों में 'रायणिय 'राइणिय' दोनों शब्द मिलते हैं, जिनका संस्कृतरूप 'रानिक' होता है । रानिक की परिभाषाएं दशवैकालिकसूत्र के व्याख्याकारों ने की हैं - ( १ ) हारिभद्रीय वृत्ति के अनुसार — चिरदीक्षित अथवा जो ज्ञानादि भावरत्नों से अधिक समृद्ध हों वे । (२) जिनदासचूर्णि के अनुसारपूर्वदीक्षित अथवा सद्भाव (तत्त्वज्ञान) के उपदेशक । (३) अगस्त्यचूर्णि के अनुसार — आचार्य, उपाध्याय आदि समस्त साधुगण, जो अपने से पूर्व प्रव्रजित हुए हों, अर्थात् दीक्षापर्याय में जो ज्येष्ठ हों। सब का आशय यही है कि ३९. जिनदासचूर्णि, पृ. २८६ ४०. (क) कृत्स्ना सम्पूर्णाः कृष्णा वा क्लिष्टाः । (ख) अहवा संकिलिट्ठा कसिणा भवन्ति । ४९. वही, पृ. ४०३ — हारि. वृत्ति, पत्र २३४ —जिनदासचूर्णि, पृ. २८६
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
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