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________________ अष्टम अध्ययन : आचार-प्रणिधि २९३ [४२४] क्रोध प्रीति का नाश करता है, मान विनय का नाशक है, माया मित्रता का नाश करती है और लोभ तो सब (प्रीति, विनय, मैत्री आदि सब गुणों) का नाश करने वाला है ॥ ३७॥ [४२५] क्रोध का हनन 'उपशम' से करे, मान को मृदुता से जीते, माया को सरलता (ऋजुभाव) से जीते और लोभ पर संतोष के द्वारा विजय प्राप्त करे ॥ ३८॥ [४२६] अनिगृहीत क्रोध और मान, प्रवर्द्धमान माया और लोभ, ये चारों संक्लिष्ट (या कृष्ण काले या समस्त) कषाय पुनर्जन्म की जडें सींचते हैं ॥ ३९॥ विवेचन कषायों पर विजय प्रस्तुत ४ गाथाओं (४२४ से ४२७) में कषायों के नाम, उनसे होने वाली हानि, उन पर विजय पाने के उपाय का और चारों कषायों का निग्रह न करने और इन्हें बढ़ने देने से संसारवृक्ष की जड़ों को अधिकाधिक सींचे जाने का प्रतिपादन किया गया है। कषाय : हानि और विजयोपाय कषाय मुख्यतया चार हैं—क्रोध, मान, माया और लोभ। फिर इनके तीव्रता-मन्दता आदि की अपेक्षा से १६ भेद तथा हास्यादि नौ नोकषाय मिलकर कुल २५ भेद हो जाते हैं। इनसे रागद्वेष का घनिष्ठ सम्बन्ध होने से पापकर्म का बन्ध होता रहता है और पापकर्म की वृद्धि से आत्मगुणों का घात होता है। क्रोध से प्रीति का, मान से विनय का, माया से मैत्री का और लोभ से सर्वगुणों का नाश हो जाता है। इन चारों कषायों को वश में न करने से केवल इहलौकिक हानि ही नहीं होती, पारलौकिक हानि भी बहुत होती है। वर्तमान और आगामी अनेक जन्म (जीवन) नष्ट हो जाते हैं, अनेक बार जन्म-मरण करते रहने पर भी सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्ररूप धर्म का लाभ नहीं मिलता। क्रोधादि कषायों पर विजय का शास्त्रीय अर्थ है—अनुदित क्रोध आदि का निरोध और उदयप्राप्त का विफलीकरण करना। क्रोधादि पर विजय के क्रमशः उपाय ये हैं—क्रोध को उपशम अर्थात् क्षमा, सहिष्णुता या शान्ति धारण करके वश में किया जा सकता है। मान पर नम्रता, विनय तथा मृदुता से, माया पर ऋजुता सरलता एवं निश्छलता से और लोभ पर संतोष, आत्मतृप्ति, निःस्पृहा तथा इच्छाओं के निरोध से विजय प्राप्त की जा सकती है। . क्रोधादि कषायों से आत्महित का नाश : कैसे? वस्तुतः आध्यात्मिक दोष जितने अंशों में नष्ट होते हैं, उतने ही अंशों में आत्मिक गुणों (ज्ञानादि) की उन्नति और वृद्धि होती है। समस्त आध्यात्मिक दोषों के मूल ये चार कषाय हैं। इनसे आत्मिक गुणों की हानि होती है। चार घाती कर्मों विशेषतः पापकर्मों की वृद्धि होती है। प्रीति अर्थात् —आत्मौपम्यभाव या वत्सलता जीवन की सुधा है। विनय जीवन की रसिकता है और मित्रता जीवन का मधुर अवलम्बन है तथा आत्मसंतुष्टि जीवन की शान्ति है, आनन्द है। क्रोधादि चारों कषायों से जीवन की सुधा, रसिकता, अवलम्बन और आनन्द (शान्ति) का नाश हो जाता है। आत्मगुणों का ह्रास हो जाता है। चेतन मोहग्रस्तता के कारण जडवत् बन जाता है। यह आत्महित का सर्वनाश है। अतः आत्महितैषी साधु-साध्वी के लिए कषाय सर्वथा त्याज्य है।८ लोभी सव्वविणासणो लोभ से प्रीति आदि सब गुण नष्ट हो जाते हैं। उदाहरणार्थ लोभ के वशीभूत ३७. जिनदासचूर्णि, पृ. २८६, हारि. वृत्ति, पत्र २३४ ३८. दशवै. (संतबालजी), पृ. १११
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
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