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________________ अष्टम अध्ययन : आचार-प्रणिधि निद्दं च न बहु मन्नेज्जा : व्याख्या - निद्रा को बहुमान न दे अर्थात् — निद्रा का सत्कार न करे, प्रकामशायी न हो तथा जिस प्रकार निद्रा अधिक आए, ऐसे उपाय न करे। सूत्रकृतांग में बताया गया है कि 'शयनकाल में सोए । ' निद्रा का हेतु केवल श्रम - निवारण है, परन्तु वही जब शौक की वस्तु हो जाए तो संयम में हानि पहुंचती है । ४६ सप्पहासं त्रिवज्जए : दो रूप : दो अर्थ - ( १ ) संप्रहास — समुदित रूप से होने वाला सशब्द हास्य, (२) सप्रहास — अट्टहास अथवा अत्यन्त हास्य। साधु को अत्यन्त हंसना भी नहीं चाहिए, क्योंकि इससे अविनय और असभ्यता प्रकट होती है, घोर कर्मबन्धन होता है, किसी समय हंसी मजाक से कलह उत्पन्न होने की सम्भावना है। हंसी-मजाक करने की आदत स्वयं को तथा दूसरे को दुःख उत्पन्न कराती है । ४७ 'मिहो कहाहिं न रमे' - परस्पर विकथाओं में लीन न हो। विकथाएं चार हैं— स्त्रीविकथा, भक्तविकथा, राजविकथा और देशविकथा । रहस्यमयी कथाएं, फिर वे स्त्री-सम्बन्धी हों या अन्य भक्तदेशादि - सम्बन्धी हों, मिथःकथा हैं। विकथा व्यर्थ की गप्पें हांकना, गपशप करना है। विकथाओं में साधक का अमूल्य समय नष्ट होता है, विकथा के शौक में पड़ जाने से साधक अपने धर्म से भ्रष्ट हो जाता है, ज्ञानादि की उपलब्धि से वंचित हो जाता है। सज्झायम्मि रओ सया : व्याख्या - स्वाध्याय के दो अर्थ मुख्य हैं— (१) सुष्ठु अध्ययन अर्थात् विधिपूर्वक अच्छे ग्रन्थों का अध्ययन, (२) शास्त्रों एवं ग्रन्थों के वाचन से स्व (अपने जीवन का) अध्ययन । साधु को सदैव स्वाध्याय तप में रत रहना चाहिए, क्योंकि इससे ज्ञानावरणकर्म का क्षयोपशम तथा ज्ञान की प्राप्ति होती है, समय समाधिपूर्वक व्यतीत होता है, धर्मपालन में दृढ़ता आती है । ४९ 'प्रमादत्याग का द्वितीय उपाय' : श्रमणधर्म में संलग्नता — यदि स्वाध्याय में सदैव मन न लगे तो क्या करना चाहिए ? इसके लिए शास्त्रकार कहते हैं— 'समणधम्मम्मि जुंजे' – अर्थात् ——– आलस्य को त्याग कर अपने मन, वचन, काया के योग (व्यापार) को श्रमणधर्म में जोड़ दे। यहां 'ध्रुव' शब्द के प्रयोग करने का आशय यह है ४६. ४७. २९७ (क) वही, पृ. ७९४ (ख) 'निद्रां च न बहु मन्येत —न प्रकामशायी स्यात् '' (ग) दशवै. (संतबालजी), पृ. ११२ ४९. (क) 'समेच्च समुदियाणं पहसणं सतिरालावपुव्वं संपहासो ।' (ख) सप्पहासो नाम अतीव पहासो, ... परवादिउद्धंसणादिकारणे जइ हसेज्जा तहावि सप्पहासं विवज्जए । (ख) मिथ: कथायु—राहस्यिकीषु । (ग) दशवै. ( आचार्य श्री आत्मारामजी महाराज), पृ. ७९४ — हारि. वृत्ति, पत्र २३५ — अगस्त्यचूर्णि, पृ. १९५ (ग) दशवैकालिक (आचार्य श्री आत्मारामजी महाराज), पृ. ७९४ (घ) दशवै. (संतबालजी) पृ. ११२ ४८. (क) मिहोकहाओ रहसियकहाओ भण्णंति, ताओ इत्थिसम्बद्धाओ वा होज्जा, अण्णाओ वा भत्तदेसकहादियाओ तासु । (क) स्वस्य अस्मिन् अध्ययनं स्वाध्यायः । (ख) सुष्ठु — विधिपूर्वकमध्ययनम् स्वाध्यायः । (ग) स्वाध्याये वाचनादौ । —जिनदासचूर्णि, पृ. २८७ —जिनदासचूर्णि, पृ. २८७ — हारि. वृत्ति, पत्र २३५ — हारि. वृत्ति, पत्र २३५
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
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