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________________ २९० दशवैकालिकसूत्र मितभोजी की स्वाध्याय, ध्यान आदि चर्याएं ठीक हो सकती हैं। बहुभोजी स्वल्प आहार मिलने पर गृहस्थ के आगे यद्वा तद्वा बकता है, निन्दा करता है, परन्तु सच्चा साधु गृहस्थ की, पदार्थ की या ग्राम की निन्दा नहीं करता, वह सन्तोष धारण कर लेता है कि गृहस्थ की चीज है, वह दे या न दे उसकी इच्छा है। २७ मद : आत्मविकास में सर्वाधिक बाधक – जब मनुष्य अपनी थोथी बड़ाई हांकता है, अपने को उत्कृष्ट बताता है, तब वह प्राय: दूसरों की निन्दा करता है। दूसरों को नीच, निकृष्ट या पापी बताकर उनका तिरस्कार करता है। अपनी जाति, कुल, बल, रूप, तप, लाभ, श्रुत, ऐश्वर्य आदि का मद (घमंड) करके अपना ही आत्मविकास रोकता है। चिकने कर्मों का बन्ध करके आत्मा पर अशुद्धि का आवरण डालता है। मद आते ही आत्मा पतन की ओर बढ़ती चली जाती है। मोक्ष-द्वार के निकट पहुंचे हुए बड़े-बड़े ज्ञानी, ध्यानी, तपस्वी भी अष्टफन मदरूपी सर्प के चक्कर में पड़ कर संसारसागर में भटक जाते हैं। अहंकारी साधु, साधुत्व, सम्यक्त्वी, सम्यग्ज्ञानी या श्रमणधर्मी होने का दावा नहीं कर सकता। इसलिए मद के दुर्गुण को छोड़ कर ही आत्मा निर्विकार हो सकती है । २८ आत्मशुद्धि में बाधक : माया— माया, क्रोध, लोभ और मद से भी बढ़ कर भयंकर है, दुर्गुणों की खान है, सत्यमहाव्रत को भस्म करने वाली ज्वाला है। यह कई रूपों में साधु या साध्वी के जीवन में आती है। अधर्म या अनाचरणीय केवल अज्ञान में ही नहीं होता, किन्तु यदाकदा ज्ञानपूर्वक भी होता है। जानबूझ कर भी कई बार मनुष्य अधार्मिक कृत्य कर बैठता है। इसका कारण है— मोह मोह के उदयवश राग और द्वेष से ग्रस्त मुनि जानता हुआ भी मूलगुण या उत्तरगुण में दोष लगाता है, कभी अज्ञानवश कल्प्य - अकल्प्य, करणीय-अकरणीय का ज्ञान न होने से अकल्प्य या अकरणीय कर बैठता है। शास्त्रकार गाथा ४१९ में कहते हैं कि अधार्मिक कृत्य हो गया हो तो उसे तुरन्त वहीं रोक देना चाहिए अन्यथा मायाग्रस्त होकर साधक की आत्मा अशुद्ध हों जाएगी। अगली गाथा ४२० में कहते हैं कि यदि कोई भी अधर्मकृत्य — अनाचरणीय कृत्य हो गया तो उसे छिपाओ मत। जो दोष करके गुरु के समक्ष छिपाता है या पूछने पर अस्वीकार करता है वह पाप पर और अधिक पाप चढ़ाता जाता है। यदि आलोचना और प्रायश्चित्त आदि से उस कृत पाप की शुद्धि न की गई तो फिर अनुबन्ध पड़ जाएगा, जिसका फल चातुर्गतिक दुःखमय संसार में परिभ्रमण करके भोगना पड़ेगा। अतः भूल या अपराध होते ही तुरन्त गुरुजन के समक्ष आलोचना करके कुछ भी छिपाए बिना, जैसा और जितनी मात्रा में, जिस भाव से दोष लगा है, उसे प्रकट कर दे और गुरु से प्रायश्चित्त लेकर शुद्ध हो जाए। इसीलिए साधक के विशेषण ४२० वीं गाथा में बताए हैंसुई सया वियडभावे० अर्थात् वह साधक सदा पवित्र, स्पष्ट, अलिप्त और जितेन्द्रिय रहे ।२९ 'अणायारं' इत्यादि पदों के विशेषार्थ – अणायारं—– अनाचार अर्थात् सावद्यकृत्य, अनाचरणीय-अकरणीय । परक्कम्म सेवन करके । नेव गूहे न निन्हवे यहां दो शब्द हैं, दोनों माया के पर्याय हैं— गूहन का अर्थ है— पूरी बात न कहना, थोड़ी कहना और थोड़ी छिपाना तथा निह्नव का अर्थ है— सर्वथा अपलाप — अस्वीकार करना । सुई २७. दशवै. ( आचार्य श्री आत्मारामजी महाराज), पृ. ७७४ २८. वही, पत्र ७७५ २९. (क) ...... तेण साहुणा जाहे जाणमाणेण रागद्दोसवसएण मूलगुण- उत्तरगुणाण अण्णतरं आधम्मियं पयं पडिसेवियं भवइ, अजाणमाणेण वा अकप्पियबुद्धीए पडिसेवियं होज्जा । —जिनदासचूर्णि, पृ. २८४-२८५ (ख) दशवै. ( आचार्य श्री आत्मारामजी महाराज), पृ. ७७७
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
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