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________________ अष्टम अध्ययन : आचार-प्रणिधि २८९ [४१७] (साधु आहार न मिलने या नीरस आहार मिलने पर गुस्से में आकर) तनतनाहट (प्रलाप) न करे, चपलता न करे, अल्पभाषी, मितभोजी और उदर का दमन करने वाला हो। (आहारादि पदार्थ) थोड़ा पाकर (दाता की) निन्दा न करे ॥ २९॥ - [४१८] साधु अपने से भिन्न किसी जीव का तिरस्कार न करे। अपना उत्कर्ष भी प्रकट न करे। श्रुत, लाभ, जाति, तपस्विता और बुद्धि से (उत्कृष्ट होने पर भी) मद न करे ॥३०॥ [४१९] साधु से जानते हुए या अनजाने (कोई) अधार्मिक कृत्य हो जाए तो तुरन्त उससे अपने आपको रोक ले तथा दूसरी बार वह कार्य न करे ॥३१॥ [४२०] अनाचार का सेवन करके उसे गुरु के समक्ष न छिपाए (गुरु के समक्ष प्रकट करे) और न ही सर्वथा अपलाप (अस्वीकार) करे, किन्तु (प्रायश्चित्त लेकर) सदा पवित्र (शुद्ध) प्रकट भाव धारण करने वाला (स्पष्ट), असंसक्त (अलिप्त या अनासक्त) एवं जितेन्द्रिय रहे ॥३२॥ विवेचन आत्मा को क्रोधादि विचारों से दूर रखे प्रस्तुत चार गाथाओं (४१७ से ४२० तक) में क्रोध, लोभ, गर्व, मद, आस्रव, माया, अपमान, निह्नवता आदि विकारों से आत्मा को दूर रख कर आत्मा को शुद्ध, निष्कपट, पवित्र, स्पष्ट, असंसक्त और जितेन्द्रिय रखने का निर्देश किया गया है। 'अतिंतिणे' आदि पदों का भावार्थ अतिंतिणे-अतिंतिण तेन्दु आदि की लकड़ी को आग में डालने पर जैसे वह 'तिणतिण' शब्द करती है, वैसे ही मनचाहा कार्य, पदार्थ या आहार न मिलने पर व्यक्ति बकवास (प्रलाप) करता है, उसे भी 'तिंतिण' (तनतनाहट) कहते हैं। जो ऐसा प्रलाप नहीं करता, उसे 'अतिंतिण' कहते हैं। अप्पभासी कार्य के लिए जितना आवश्यक हो उतना ही बोलने वाला। मियासणे : दो रूप : दो अर्थ (१) मिताशन:-मितभोजी और (२) मितासन:-भिक्षादि के समय में थोड़े समय तक बैठने वाला। थोवं लथुन खिंसए आहारादि थोड़ा पाकर आहारादि की या दाता की निन्दा न करे। बाहिरं न परिभवे बाह्य अर्थात् अपने से भिन्न व्यक्ति का परिभव (तिरस्कार या अनादर) न करे। अत्ताणं न समुक्कसे -अपनी उत्कृष्टता की डींग न हांके। सुयलाभे....बुद्धिए-श्रुत आदि का मद न करे, श्रुटि के मद की तरह मैं कुलसम्पन्न हूँ, बलसम्पन्न हूँ या रूपसम्पन्न हूं, ऐसा कुल, बल और रूप का मद भी न करे। श्रुतमद, यथा-मैं बहुश्रुत हूं, मेरे समान कौन विद्वान या बहुश्रुत है। लाभमद, यथा—मुझे जितना और जैसा आहार प्राप्त होता है, वैसा किसे होता है ? अथवा लब्धिमद-लब्धि में मेरे समान कौन है ? जाति, तप और बुद्धि के मद के विषय में भी इसी प्रकार समझ लेना चाहिए।२६ निन्दा : आत्मशुद्धि में भयंकर बाधक साधु को आहार थोड़ा या नीरस मिले या न मिले तो वह क्षेत्र की, दाता की या पदार्थ की निन्दा न करे, न ही व्यर्थ बकवास करे, वह चंचलता को छोड़ कर स्थिरचित्त रहे, अत्यन्त आवश्यक हो वहां थोड़ा-सा बोले। प्रमाण से अधिक आहार न करे। साधु को अपने उदर पर काबू रखना चाहिए। २५. (क) अगस्त्यचूर्णि, पृ. १९२ (ख) हारि. वृत्ति, पत्र २३३ २६. (क) जिनदासचूर्णि, पृ. २८४ (ख) हारि. वृत्ति, पृ. २३३
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
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