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________________ अष्टम अध्ययन : आचार-प्रणिधि २९१ शुचि–अकलुषितमति, पवित्रात्मा, वियडभाव-विकटभाव—जिसके भाव (विचार) प्रकट-स्पष्ट हों, वह । शुचि (पवित्र) वही होता है, जो सदा स्पष्ट रहता है। वीर्याचार की आराधना के विविध पहलू ४२१. अमोहं वयणं कुजा आयरियस्स महप्पणो । तं. परिगिज्झ वायाए कम्मणा उववायए ॥ ३३॥ ४२२. अधुवं जीवियं नच्चा, सिद्धिमग्गं वियाणिया । विणियट्टिज भोगेसु, आउं परिमियमप्पणो ॥ ३४॥ [बलं थामं च पेहाए सद्धामारोग्गमप्पणो । खेत्तं कालं च विण्णाय तहऽप्याणं निजुंजए*॥] ४२३. जरा जाव न पीलेई, वाही जाव न वड्डई । जाविंदिया न हायंति, ताव धम्मं समायरे ॥ ३५॥ [४२१] मुनि महान् आत्मा आचार्य के वचन को सफल (अमोघ) करे। वह उनके (आचार्य के) कथन को ('एवमस्तु' इस प्रकार) वाणी से भलीभांति ग्रहण करके कर्म से (कार्य द्वारा) सम्पन्न करे ॥ ३३॥ [४२२] (मुमुक्षु साधक) अपने जीवन को अध्रुव (अस्थिर या अनित्य) और आयुष्य को परिमित जान तथा सिद्धिमार्ग का विशेषरूप से ज्ञान प्राप्त करके भोगों से निवृत्त हो जाए ॥३४॥ [अपने बल (मनोबल या इन्द्रियों की शक्ति), शारीरिक शक्ति (पराक्रम), श्रद्धा और आरोग्य (स्वास्थ्य) को देख कर तथा क्षेत्र और काल को जान कर, अपनी आत्मा को (उचित रूप से) धर्मकार्य में नियोजित करे॥] [४२३] जब तक वृद्धावस्था (जरा) पीड़ित न करे, जब तक व्याधि न बढ़े और जब तक इन्द्रियां क्षीण न हों, तब तक धर्म का सम्यक् आचरण कर लो ॥ ३५॥ विवेचन आत्मा का शुद्ध पराक्रम प्रस्तुत ४ गाथाओं (४२१-४२३ तक) में आत्मा को पराक्रम करने के तीन साधनों (मन, वचन, काय) से अपने अनित्य जीवन को भोगों से मोड़कर श्रद्धा, स्वास्थ्य आदि देख कर, जरा-व्याधि-इन्द्रियक्षीणता की परिस्थिति आए उससे पहले-पहले ही धर्माचरण में पराक्रम कर लेने का निर्देश किया गुरु की दी हुई शिक्षा कार्यरूप में परिणत करे-गाथा ४२१ में गुरु से ज्ञान प्राप्त करने के लिए विनयव्यवहार आवश्यक बताया है। बहुत से साधक आचार्य या गुरु की शिक्षा केवल वचन से स्वीकार करते हैं, उसे ३०. (क) अणायारं अकरणीयं वत्थु । -अ. चू., पृ. १९३ (ख) गूहनं-किंचित् कथनम्, निह्नवं एकान्तापलापः । (ग) गृहणं किंचि कहणं भण्णइ । णिण्हवो णाम पुच्छिओ संतो सव्वहा अवलवइ । सो चेव सुई, जो सया वियडभावो। -जिनदासचूर्णि, पृ. २८५ * यह गाथा कुछ प्रतियों में मिलती है, कुछ में नहीं मिलती। - ३१. दशवेयालियसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त)
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
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