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________________ अष्टम अध्ययन : आचार-प्रणिधि २८५ इसकी सगाई अमुक के लड़के से कर दे। इस लड़के को अमक कार्य में लगा दे। अथवा गृहस्थ के बालकों को खिलाना, उसके व्यापार-धंधे को स्वयं देखना अथवा उसके अन्य गृहस्थोचित कार्य स्वयं करने लगना गृहस्थव्यापार (कर्म) है। यह साधु के लिए अनाचरणीय है। गिहिणो वेयावड़ियं-गृहस्थ की सेवा करना अनाचीर्ण बताया गया है।१६ 'निट्ठाणं' आदि पदों का अर्थ निट्ठाणं—जो भोजन सर्वगुणों से युक्त हो अथवा मिर्च-मसाले आदि से सुसंस्कृत हो अर्थात् जो सरस हो। रसनिजूढं : रसनियूढं जिसका रस चला गया हो, ऐसा निकृष्ट या नीरस भोजन। आहार के गुणदोषों का तथा लाभालाभ का कथन-निषेध क्यों ? ऐसा कहने से साधु के अधैर्य, असंयम आदि दोष प्रकट होते हैं, संयम का विघात होता है, श्रोताओं के मन में नाना शुभाशुभ विकल्प पैदा होते हैं, जिससे भविष्य में साधु के निमित्त से आरम्भ-समारम्भ आदि होने की सम्भावना है। रसनेन्द्रिय और कर्णेन्द्रिय के विषयों में समत्वसाधना का निर्देश ४११. न य भोयणम्मि गिद्धो चरे उंछं अयंपिरो । अफासुयं न भुंजेज्जा, कीयमुद्देसियाऽऽहडं ॥ २३॥ ४१२. सन्निहिं च न कुव्वेजा अणुमायं पि संजए । मुहाजीवी असंबद्धे हवेज जगनिस्सिए ॥ २४॥ ४१३. लूहवित्ती सुसंतुढे अप्पिच्छे सुहरे सिया । आसुरत्तं न गच्छेजा, सोच्चाणं जिणसासणं ॥ २५॥ ४१४. कण्णसोक्खेहिं सद्देहिं पेमं नाभिनिवेसए । दारुणं कक्कसं फासं काएण अहियासए ॥ २६॥ [४११] (साधु सरस) भोजन में गृद्ध (आसक्त) होकर (विशिष्ट सम्पन्न घरों में) न जाए, (किन्तु) व्यर्थ न बोलता हुआ उच्छ (ज्ञात-अज्ञात उच्च-नीच-मध्यम सभी घरों से थोड़ी-थोड़ी समानभाव से भिक्षा) ले। (वह) अप्रासुक, क्रीत, औद्देशिक और आहृत (सम्मुख लाये हुए प्रासुक) आहार का भी उपभोग न करे ॥ २३॥ [४१२] संयमी (साधु या साध्वी) अणुमात्र भी सन्निधि न करे (संग्रह करके रात्रि में न रखे)। वह सदैव १६. (क) वही, (आ. आत्मा.), पत्र ७६० (ख) गिहिजोगं गिहिसंसग्गिं, गिहवावारं वा -अ.चू., पृ. १९० (ग) .....अहवा गिहिकम्मं जोगो भण्णई, तस्स गिहिकम्माणं कयाणं अकयाणं च तत्थ उवेक्खणं सयं वाऽकरणं, जहा—एस दारिया किं न दिजइ ? दारको वा किं न निदेसिज्जइ ? एवमादि। —जिनदासचूर्णि, पृ. २८१ (घ) गृहियोगं-गृहिसंबंध-तद्बालग्रहणादिरूपं गृहिव्यापारं वा ।। -हारि. वृत्ति, पृ. २३१ १७. (क) णिहाणं नाम जं सव्वगुणोववेयं सव्वसंभारसंभियं तं णिहाणं भण्णइ । -जिनदासचूर्णि, पृ. २८१ (ख) रसणिजूढं णाम जं कदसणं ववगयरसं तं रसणिजूढं भण्णइ । -जिनदासचूर्णि, पृ. २८१ १८. दशवै. (आ. आत्मारामजी महाराज), पृ.७६३
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
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