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दशवकालिकसूत्र मुधाजीवी असम्बद्ध (अलिप्त) और जनपद (या मानवजगत्) के निश्रित रहे, (एक कुल या एक ग्राम के आश्रित न रहे) ॥२४॥
[४१३] साधु रूक्षवृत्ति, सुसन्तुष्ट, अल्प इच्छा वाला और थोड़े से आहार से तृप्त आहार वाला हो। वह जिनप्रवचन (क्रोधविपाकप्रतिपादक जिनवचन) को सुन कर आसुरत्व (क्रोधभाव) को प्राप्त न हो ॥ २५॥
[४१४] कानों के लिए सुखकर शब्दों में रागभाव (प्रेम) स्थापन न करे, (तथा) दारुण और कर्कश स्पर्श को शरीर से (समभावपूर्वक) सहन करे ॥ २६॥
विवेचन-पंचेन्द्रियविषयों के प्रति मध्यस्थभाव रखे प्रस्तुत ४ गाथाओं (४११ से ४१४ तक) में रसनेन्द्रिय, श्रोत्रेन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय के विषयों में राग-द्वेष न करके समत्वभाव रखने का प्रतिपादन स्पष्ट है, शेष घ्राणेन्द्रिय और चक्षुरिन्द्रिय के विषयों में भी समत्वभाव उपलक्षण से फलित होता है।३९
'ण य भोयणम्मि गिद्धो....चरे०' व्याख्या–भोजन शब्द से यहां चारों प्रकार के आहार का ग्रहण किया गया है। भोजन में आसक्त होकर निर्धन कुलों को छोड़ कर उच्च कुलों में प्रवेश न करे। अथवा भोजन के प्रति आसक्त होकर विशिष्टभोजनप्राप्ति के लिए दाता की प्रशंसा करता हुआ भिक्षाचर्या न करे।२०
___ 'उञ्छ' शब्द का अर्थ भावार्थ -गृहस्थ के भोजन कर लेने के बाद शेष रहा भोजन लेना, या घर-घर में थोड़ा-थोड़ा आहार लेना। यह स्वल्प भिक्षा का वाचक शब्द है।"
'सन्निहि' आदि शब्दों के अर्थ सन्निधि शाब्दिक अर्थ है—पास में रखना, जमा या संग्रह करना, भावार्थ है-रात बासी रखना। मुहाजीवी मुधाजीवी—किसी प्रकार मूल्य (बदलने में) लिए बिना निःस्पृहभाव से जीने वाला, अपने जीवननिर्वाह के लिए धन आदि का प्रयोग न करने वाला, अथवा सर्वथा अनिदान-जीवी, अर्थात् गृहस्थ का किसी भी प्रकार का सांसारिक कार्य न करके प्रतिबद्धतारहित भिक्षावृत्ति द्वारा संयमी जीवन यापन करने वाला।
असंबद्धे असम्बद्ध-गृहस्थों से अनुचित या सांसारिक प्रयोजनीय सम्बन्ध न रखने वाला या जलकमलवत् गृहस्थों से निर्लिप्त अथवा जो सरस आहार में आसक्त-बद्ध न हो। जगनिस्सिए : जगनिश्रित : अर्थ और भावार्थ शब्दशः अर्थ होता है—जगत् के आश्रित—अखिल मानवजगत् के आश्रित रहे। किन्तु अगस्त्यसिंहचूर्णि के अनुसार भावार्थ है—मुनि एक कुल या ग्राम के निश्रित न रहे, किन्तु जनपद के निश्रित रहे, वर्तमान युग की भाषा में जनाधारित रहे। जिनदासचूर्णि के अनुसार इसका आशय है—मुनि गृहस्थ के यहां से जो निर्दोष व सहजभाव में प्राप्त हो, उसी पर आश्रित रहे । मन्त्र-तन्त्रादि दोषयुक्त उपायों के आश्रित न रहे। लूहवित्ती : रूक्षवृत्ति : दो अर्थ(१) रूक्ष संयम के अनुकूल प्रवृत्ति करने वाला, (२) चना, कोद्रव आदि रूक्ष द्रव्यों से जीविका (जीवननिर्वाह)
१९. (क) दसवेयालियं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त), पृ. ५७
(ख) दशवै. (आचार्यश्री आत्मारामजी महाराज), पृ.७६७, ७६९ २०. (क) जिनदासचूर्णि, पृ. २८१
(ख) हारि. वृत्ति, पत्र २३१ २१. (क) उञ्छः कणश आदानं कणशाद्यर्जनशीलमिति यादवकोशः ।
(ख) दशवै. १०/१६, चू. २/५